Nitishatakam

I had bought Bhartrhari’s Nitishatakam many years ago when I thought of learning Sanskrit by directly reading original texts and their translations. This project did not take off and I was going through the thin book again yesterday and thought of sharing some of the initial slokas as this weeks blog post. (I apologize in advance for any mistakes in copy-pasting the content below and if you point them out in the comments I will correct the mistakes)

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अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ॥३॥

पदार्थ – अज्ञः = न जाननेवाला (मूढ़) व्यक्ति, सुखं = आसानीसे, आराध्यः = समझाया जा सकता है। विशेषज्ञः = विशेषरूपसे जानकार (विद्वान्) व्यक्ति, सुखतरं = अत्यन्त आसानी से । आराध्यते =संतुष्ट किया जा सकता है, ज्ञानलवदुर्विदग्धं = ज्ञानके अंश (अल्पज्ञान) से गर्वित, तं नरं = उस मनुष्य को तो, ब्रह्मापि = ब्रह्मा भी, न रञ्जयति = नहीं प्रसन्न कर सकते ।

भाषार्थ – मूर्ख मनुष्यको शीघ्र ही प्रसन्न किया जा सकता है एवं विशेष बुद्धिमान् और भी आसानीसे अनुकूल बनाया जा सकता है। किन्तु थोड़ा-सा ज्ञान पाकर इतरानेवाले मनुष्यको तो स्वयं ब्रह्मा भी नहीं प्रसन्न कर सकते, मनुष्यकी तो बात ही क्या है ? ॥३॥

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यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किंचित् किंचिद् बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥८॥

पदार्थ – यदा = जब, अहं = मैं, किंचिज्ज्ञः = अल्पज्ञ था (तो), द्विप इव = हाथी की तरह, मदान्धः मदसे अंधा, समभवं = हो गया था । तदा = तब, ‘सर्वज्ञः अस्मि’ = ‘मैं ही सब कुछ जाननेवाला हूँ’, इति = इस प्रकार, मम मनः = मेरा चित्त, अवलिप्तम् = गर्वसे युक्त, अभवत् = हो गया। (किन्तु) यदा= जब, किंचित् किंचित् = कुछ कुछ, बुधजनसकाशात् = विद्वानोंके संसर्गसे, अवगतं = सीखा, तदा = तब, “मूर्खोऽस्मि” = मैं तो मूर्ख हूँ, इति = ऐसा, ज्वर इव = ज्वरकी तरह, मे मदः = मेरा घमंड, व्यपगतः = शान्त हो गया ।

भाषार्थ – जब मुझे (शास्त्रों) का थोड़ा सा ज्ञान था तब मदसे उन्मत्त हाथीकी भाँति मैं अहंकारमें झूमने लगा और मनमें सोचता था कि मैं तो सर्वज्ञ हूँ । परन्तु मैंने विद्वानों के बीच रहकर कुछ-कुछ सीखना आरम्भ किया तब यह बात समझ में आई कि मैं तो मूर्ख हूँ और फिर मेरा सम्पूर्ण अहंकार ज्वरकी तरह समाप्त हो गया ॥८॥

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साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥१२॥

पदार्थ – साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः = साहित्य और सङ्गीतकी कलासे रहित व्यक्ति । साक्षात् = प्रत्यक्ष ही। पुच्छविषाणहीनः पशुः = पूंछ और सींगसे रहित पशु है। (वह जो) तृणं न खादन् अपि = घास न खाता हुआ भी। जीवमानः = जीरहा है। तद् = वह (उसका जीना)। पशूनां = पशुओंके लिये । परमं भागधेयं = अत्यन्त भाग्यकी बात है ।

भाषार्थ – साहित्य (काव्यादि) तथा संगीत (नृत्यगीत आदि) की, कलासे शून्य मनुष्य, पूँछ और सींग रहित साक्षात् पशु ही होता है। वह बिना घास खाये भी जो जीवित रहता है यह वास्तविक गाय बैल इत्यादि पशुओंका बहुत सौभाग्य है । (क्योंकि यदि मूर्ख मनुष्यरुपी पशु भी घास खाना प्रारम्भ कर देंगे तो प्रकृत पशुओंके लिये घास बचेगी नहीं । अतः पशुओंका भाग्य अच्छा है कि ये घास नहीं खाते) ॥१२॥