Knowing and Believing

जानना और मानना बाइनरी नहीं है। अगर हम मानते होते हैं और हम सजग होते हैं कि हम मान रहे हैं, तो यह एक बात होती है जिसका असर दिमाग में एक प्रकार का होता है, जिसके कारण आगे की प्रोसेसिंग एक प्रकार की होती है। उदाहरण के लिए मैं मान लिजिए कोई कर्म काण्ड कर रहा हूं। श्राद्ध को ही ले लें या गंगा स्नान को। मैं ये कर्म मान कर कर रहा हूं और सजग हूं कि मान कर कर रहा हूं कि यह करने से फलां लाभ मिलेगा/पुण्य मिलेगा, इत्यादि इत्यादि। मैं इस भ्रम में नहीं हूं कि यह सब जो मैं कर रहा हूं ये कोई rational या scientific कृत्य है और “मैं जानता हूं”। अब मैं दूसरा उदाहरण लेता हूं। मैं डाक्टर की diabetes या blood pressure की दवा खाता हूं । न मैं दवा के chemicals के बारे में कुछ जानता हूं, न उन chemicals के वजह से मेरे शरीर पर होने वाले असर को जानता हूं और न ही blood pressure के प्रतिमानों के बारे में मेरा कोई ज्ञान है। पर मैं एक आधुनिक सामान्य पढ़ा लिखा होने की वजह से यह कृत्य (दवा लेने का कृत्य) करते वक्त इस भ्रम में रहता हूं कि यह एक rational scientific कृत्य है और झाड़ फूंक या किसी जड़ी बूटी के इलाज के बनिस्पत rational है और वे सब अंधविश्वास है। यहां भी जहां तक मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति का सवाल है यह कृत्य मैं मान कर ही कर रहा हूं डाक्टर और दवा पर आस्था रख कर पर में इस भ्रम में रहता हूं की यह काम scientific है। सबसे बड़ा लोचा यहीं है।

ये दो कृत्य एक ही तरह के है। दोनो ही मान कर किए जा रहे है पर एक में “मैं जानता हूं की मैं मान कर कर रहा हूं” और दूसरे में “मैं मान कर करते हुए इस भ्रम में रहता हूं की मैं जानता हूं”। यह भ्रम खतरनाक है जिसमे आज के rationality में अथाह आस्था (विश्वास नहीं कहूंगा) रखने वाले लोग फंसे हैं। इन दोनो प्रकार की सोच में दिमाग अलग अलग प्रोसेसिंग करता है और इसके प्रभाव भी अलग अलग छोड़ता है। एक में अहंकार, दूसरे में विनम्रता। यह विनम्रता आगे का रास्ता खोल सकने की संभावना जिंदा रखती हैं। रेशनलिटी से, उस भ्रम से जनित अहंकार आगे का रास्ता बंद कर देती है (जब आप न जानते हुए भी यह मान लेते है की आप जानते है तो आगे आपका दिमाग काम करना बंद कर देता है। स्वाभाविक है)। आज की आधुनिकता यही कर रही है । हम सब गुलाम हो गए है और अहंकार इतना की पूछिए नहीं। सैकड़ों उदाहरण है। करोना काल में लोग कितने भ्रम में रहे पर पढ़ा लिखा वर्ग का अखबार और टीवी पर कितना विश्वास था?

बाइनरी भ्रम से ही जनित है। either/or एक मानसिकता है, वास्तविकता नहीं। वास्तविकता तो “यह भी और वह भी” की है। This and that too, either and or। यह या वह का चयन स्थिति परिस्थिति तय करेगी। यही तो फर्क है न्याय की दृष्टि और कानून (law) की दृष्टि में। कानून की दृष्टि सपाट होती है either/or वाली। न्याय की दृष्टि ज्यादा सूक्ष्म, स्थिति परिस्थिति को ध्यान में रख कर फैसला करने वाली न की किताब जो एक जड़ वस्तु है, को केंद्र में रख कर फैसला करने वाली।

यहां ऐसा लगता है कि यह text/लिखित और मौखिक या आंख और कान की दुनिया का फर्क है। मौखिक दुनिया कान वाली ज्यादा संवेदनशील होती है शायद, ज्यादा ठहरी हुई भी। आंख, textual या लिखित शब्दों वाली दुनिया में जड़ता ज्यादा है । साथ ही आंख चंचल भी ज्यादा है। आधुनिक दुनिया ने कान वाली दुनिया को संगीत तक सीमित कर दिया है। ज्ञान, समझ, विवेक इन सब को आंख के हवाले कर दिया है। और आंख वालों की आंखों पर अलग अलग नंबर और रंगों के चश्मे (आइडियोलॉजी, ideas, मान्यताओं, वादों इत्यादि) चढ़ गए हैं। कान अभी भी खुला है पर बेचारे की दुनिया ओछी कर दी गई है, तिरस्कृत।

मैने तो पिछले २०/२५ वर्षों में कान से ज्यादा समझा। चाहे वह गांव के लोगों से, चाहे धरमपाल जी, नागराज जी या रविंद्र शर्मा जी या कमलेश जी या Rinpoche jee या और कोई भी इन सब को सुन कर ज्यादा समझ आया। आंख से कोई झगड़ा नहीं है । Either/or नहीं है। पर आंख की चंचलता और पढ़े हुए के अहंकार को ध्यान में रखना अच्छा होता है। कान का अहंकार कम होता है। देखिएगा “मैने ऐसा पढ़ा है, फलां ने ऐसा लिखा है, ऐसा फलां फलां जगह मैने पढ़ा है”। इसकी तुलना करिए “मैने ऐसा सुना है”। दोनों में फर्क है न? बोलने वाले के भाव में भी और सामान्य सुनने वाले पर होने वाले असर पर भी!