धरमपाल: सहजता और आत्म विश्‍वास कैसे लौटे (Part 2 of 2)

(This was written in February 2021 for ‘Yathavat’ a magazine that is published from Delhi)

धरमपाल जी के शोध कार्य का संभवतः सिर्फ साठ प्रतिशत या उससे भी कम ही प्रकाशित हो पाया है। पर ऐसा लगता है बरसों की तपस्या के बाद दस्तावेज़ों को पढ़ते पढ़ते, महात्मा गांधी को पढ़ते और समझते हुए और साथ ही भारत के साधारण और साधारण लोक जीवन को देखते हुए उन्होंने इन अलग अलग क्षेत्रों में हुई समझ को आपस में जोड़ने का सतत प्रयत्न किया। आजकल विशेषज्ञों और विशेषज्ञता का ज़माना है जिसमें ज्ञान अलग अलग खांचों में सीमित हो कर ही रह जाता है। पर जीवन की वास्तविकता है कि हर चीज़ हर दूसरी चीज़ से जुड़ी होती है – सीधे सीधे या घुमावदार, थोड़ा जटिल रास्तों से। धरमपाल जी की समग्रता में चीज़ों को देखने और जोड़ने की वजह से उन्हें भारत और पश्चिम के बारे में एक मौलिक समझ बनी जिसका प्रमाण उनके “भारतीय, चित्त, मानस काल” में मिलता है, जो संभवतः उनके बरसों के काम के निचोड़, उससे जनित दृष्टि और समझ से निकला लगता है। महात्मा गांधी की तरह उन्हें भी भारत के साधारण लोक जीवन की श्रेष्ठता दिखाई देने लगी। यहाँ के साधारण के व्यवहार, मान्यताओं, काम करने और सोचने के तरीकों में उन्हें श्रेष्ठता दिखाई दी और साथ ही आधुनिक (पश्चिमी) व्यवस्थाओं, तौर तरीकों में, छद्म रूप से, निहित हिंसा, शोषण, नियंत्रण करने की प्रवृति, भी साफ़ साफ़ दिखाई दी। इसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि भारत का लोक मानस और यह आधुनिक व्यवस्था जिन प्रवृतियों को उकसाती हैं या जिस ओर मनुष्य को जाने को लगभग विवश करती हैं, इन दोनों के बीच टकराव है, दोनों की बैठकें अलग अलग हैं। हामारा मानस इस आधुनिकता के साथ बैठता नहीं और हमे लगातार एक पराये और प्रतिकूल वातावरण में अपने को ढालने का प्रयास करना पड़ता है।

धरमपाल जी का शोध, चाहे वह शिक्षा व्यवस्था की बात हो, यहाँ की उन्नत तकनीक और विज्ञान की बात हो, यहाँ के विरोध जताने के तरीकों की बातें हों – ये सब हमें अनोखी लगती हैं। इसलिए भी कि जो तस्वीर भारत की इतने वर्षों में गढ़ी गई, वह इसके लगभग विपरीत बैठती है। इनको जान कर हमे गर्व भी होना स्वाभाविक है पर हमारा ध्यान इस बात पर जाना और भी ज़रूरी है कि वो कौन से कारण थे, जिनसे यह सब संभव हो पाया। उन मान्यताओं, जीवन दृष्टि और व्यवस्थाओं के सिद्धांतों को हमें पकड़ना है जिसके लिए शोध के साथ साथ, गहरे मनन और मौलिक चिंतन ज़रूरी है। और इसके लिए कुछ समय के लिए मुक्त भाव से सोचने की ज़रूरत, बगैर पश्चिम को देखे। जैसे अच्छे बच्चे हर काम को करते वक्त अपने माँ-पिता की ओर देखते रहते हैं कि उन्हें कैसा लग रहा है, उनकी सराहना मिल रही है या नहीं – ऐसा ही कुछ हाल हमारी प्रभावी बौद्धिकता का हो गया है। इस प्रवृति को हम में से कुछ लोगों को कुछ समय के लिए त्यागना पड़ेगा। यह हर महत्वपूर्ण बात के लिए पश्चिम की ओर देखने से हमारा लाभ कम और नुकसान ज़्यादा हो रहा है। हम अब हर क्षेत्र में उनकी नकल करने लगे हैं और इसका एक असर यह होता है कि हम देख कर भी नहीं देख पाते, सुन कर भी नहीं सुन पाते और मौलिकता से कोसों दूर हो गए हैं। यह बीमारी हमारी मीडिया, बौद्धिक जगत, राजनीति, शिक्षा, तकनीक और विज्ञान, खेती, आंदोलनकारियों सभी को लग गई है। इससे मुक्त हुए बगैर हम न तो ढंग से काम कर पाएंगे और न ही अपनी मानस के अनुकूल व्यवस्थाएं खड़ी कर पाएंगे। और अपने स्वभाव के अनुकूल व्यवस्थाएं जब तक नहीं होंगी तब तक हम असल माने में न तो स्वतंत्र होंगे, न सहज और न ही वास्तविक आत्मविश्वास हम में आ पाएगा। धरमपाल जी की असली चिंता और प्रयत्न यही था।

धरमपाल: सहजता और आत्म विश्‍वास कैसे लौटे (Part 1 of 2)

(This was written in February 2021 for ‘Yathavat’ a magazine that is published from Delhi)

यह धरमपाल जी का शताब्दी वर्ष है। जगह जगह छोटे बड़े कार्यक्रम हो रहे हैं। अभी 19 तारीख को धरमपाल जी के जन्मदिवस पर प्रधानमंत्री ने शांति निकेतन, बंगाल में दिये अपने एक भाषण में शिवाजी जयंती, जो उसी दिन पड़ती है, के साथ धरमपाल जी के शोध का कुछ विस्तार से ज़िक्र भी किया। हाल में उनको लेकर एक सुगबुगाहट सी देखने को मिलती है।

देश में कई दशकों से एक प्रकार के विचार और भारत के विगत के बारे में एक खास प्रकार के मिथक प्रभावी रहें हैं। उसमें, और महात्मा गाँधी जिस ओर – ‘स्व-राज’ की दिशा में – देश को ले जाना चाहते थे, इन दोनों के बीच कोई सामंजस्य नहीं था। और धरमपाल जी की अपनी अनूठी शोध से जो दृष्टि बनी उसके लिए भी, आज़ादी के बाद बुद्धिजीवी जगत और राजनीति के क्षेत्र में (गाँधीवादियों समेत) जो वर्ग प्रभावी रहा उसमें इस तरह के विचारों के लिए जगह मिलना बहुत मुश्किल रहा है। पर अब लगता है की छोटे-मोटे ही सही पर धरमपाल की बातों के लिए कुछ रास्ते खुले हैं। अब जो लोग उनके काम को गहराई से समझते हैं उन पर निर्भर है कि वे इसका लाभ उठायें और उनके काम को आगे बढ़ायें।

धरमपाल जी के कई पक्षों पर बात हो सकती है। अधिकतर उनपर जब बातें होती हैं वे उनके शोध कार्य, जो अत्यंत महत्वपूर्ण है, तक सीमित हो जाती हैं। और अमूमन यह महज एक exotic जानकारी और अपने विगत के बारे में कोरे अहंकार तक ही सीमित हो कर रह जाती है । कुछ खुश हो जाते हैं, कुछ इन पर प्रश्न खड़े करने लगते हैं/ या इनकी अवहेलना/अनदेखी करने लगते हैं। देश के प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग को सत्य से ज़्यादा अपनी पहचान से प्रेम है और उनकी पहचान जिन वैचारिक आधारों पर खड़ी है, वह धरमपाल के कार्य से उलट हैं। इसलिए यह वर्ग आज तक धरमपाल जी के अत्यंत महत्वपूर्ण काम की अवहेलना करते रहा है।

पर धरमपाल जी के कार्य को महज जानकारी के तौर पर देखने और वहीं तक सीमित कर देने से, इस कार्य में अंतरनिहित अनेक महत्वपूर्ण और ज़रूरी पक्षों से हम वंचित रह जायेंगे। धरमपाल जी का समस्त कार्य देश और पश्चिम को समझने की एक कोशिश थी,जिसकी प्रेरणा के पीछे देश को लेकर एक गहरी पीड़ा और व्यथा थी। धरमपाल जी ने तो अपनी स्नातक की पढ़ाई 1942 में बीच में ही छोड़ दी थी। वे कोई आजकल जिसे इतिहासकार कहा जाता है वैसे इतिहासकार तो थे नहीं। उनका शोध समझने के लिए था कोई डिग्री पाने के लिए नहीं। इसलिए उसमें मौलिकता है। जिन लेखागारों और पुस्तकालयों में उन्होंने बरसों तपस्या की और जिन दस्तावेज़ों को देखकर उन्होंने भारत की जो तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत की, उन दस्तावेज़ों को अन्य लोगों ने भी देखा ही होगा पर वे वह देख नहीं पाये जो धरमपाल देख पाये। ऐसा क्यों होता है कि हम देख कर भी वह नहीं देख पाते, सुन कर भी वो नहीं सुन पाते जो महात्मा गांधी, धरमपाल और रविंद्र शर्मा “गुरूजी” जैसे लोग कर पाते हैं? संभवतः इसलिए कि ये लोग दूसरों के द्वारा भारत के बारे में, सदियों से बनाई गई तस्वीर और उससे जुड़ी मान्यताओं से प्रभावित हुए बगैर, खुले दिमाग से देखते, सुनते और उस पर मनन करते हैं। जो लोग धरमपाल जी के काम से रोमांचित होते हैं उन्हे इस बात को पकड़ने की आवश्यकता है।

(Part 2 will be published here next week)

Nothing exists in isolation (Part 2)

(Note: This was published in two parts at 3rd space, a website that highlights alternative perspectives. The original article is available here. This is the concluding part)

From the human perspective, Existence, whatever there is – both the sensorial and that which are beyond senses (thoughts, feelings, imagination, desires etc) consists of the Known and the Unknown – two domains.

This is true, both at the micro or individual level, as well as at the macro or collective level. Any new discovery, before it reveals itself (or gets revealed), lies in the domain of the Unknown.

There is a transition from the Unknown into the Known as we make new discoveries. But this does not have any impact on the Unknown, which remains Infinite and Omnipresent.

There is a transition also in the opposite direction – from the Known into the Unknown – but this is subtle and often goes unnoticed. This is called vismriti. What was known once, gets lost or goes back into the domain of the Unknown. [Itithas as distinct from history, Archaeology, (good) literature etc may help us rediscover what was once Known].

It is quite possible that what we discover today, in our arrogance, we assume to be a new discovery, but in fact it may have been known earlier and then lost.

Uncertainty is the manifestation of the Unknown into the Known. It is always present, but human beings normally recognise it only when things either go wrong or when something entirely unexpected (in the direction of desirability) happens.

Uncertainty too is omnipresent. Uncertainty is only a subset of the infinite Unknown. Uncertainty is only a manifestation of the Unknown into the Known. If we pay attention, it becomes obvious that the domain of Unknown keeps playing a role in the Unfolding/Happening.

It is the conditioning of the modern mind to perceive the Doing and the Cause of Doing in Isolation, without seeing either the context(s) (there are layers and layers of contexts; the context of the Doing/Unfolding/Happening and the context behind that context and so on), or other connection/Inter-dependencies that play a role in the Happening/Unfoldment.

Because of this deep conditioning, we attribute the cause of the Happening only to the individual (or group of individuals) intending or desiring and making the effort. But there is never ever only a single cause to the Unfoldment.

Recognition and Acknowledgement (which follows recognition) of these other factors (over which we have no control) playing a role in the unfoldment, gives rise to gratitude and Faith and true Humility. Non-recognition and non-acknowledgement are due to ignorance, resulting in arrogance.

Human beings are only one of the several causes in (some of) the happening. There are causes, beyond their reach, which also play a role in the happening. Desire to Control is anti-existential, it is false. It is mithya. It is mithya because it is simply Not True. This happens due to ignorance, conditioning, and it gives rise to arrogance. The mistaken belief that one who is attempting/doing is the one who is in control, and he/she is the sole Doer (while ignoring or being completely oblivious to the role played by the Unknown), gives rise to this arrogance (taking entire credit for the Happening).

Life (the Happening/Unfolding) seems to be like a non-stop Dance of coming together (and moving away), making direct/indirect connections. This is in Continuity, Without A Break, Constantly Happening. As there is no break – the Past is always Connected to the Present and in the Present Everything (sensorial and extra sensorial) is Connected with Everything – directly or indirectly.

And where is all the dance happening? What is the Largest Context (the context of all contexts), in which All this is Happening?

In Space – Omni Present. Surrounding everything. Everything is immersed in It. Everything is embedded by It. This is what connects everything. It is The Primary Cause of Connectivity and Relationship. This connects everything, nothing is in isolation. This encompasses or enfolds both the Known and the Unknown. If this is God… No issues.

Nothing exists in isolation (Part 1)

(Note: This was published at ‘3rd space’ a website that highlights alternative perspectives. The original article is available here. This is part 1 of 2)

I grew up as a non-believer, an atheist. However, when I started working in the rural area in India, and developed some sort of relationship with the villagers, I began to appreciate their innate goodness, the values that they lived by in their everyday lives, and how easy and natural it was for them to live like that.

When I compared myself and others like me – urban, ‘educated’, modern with a ‘scientific’ outlook – with them, I found that even though we speak a lot about ‘values’, like freedom, equality, rights etc, we largely lack values in our personal lives.

We live with a lot of contradictions and hypocrisy in our personal lives. Telling a lie comes very easily to us. We can look at the way CVs are made these days as an example. Often all this is done to look good in the eyes of others, to appear politically correct, to sell ourselves in the market, and other such reasons. Since everyone else is doing the same thing, we seldom notice it. Working with this rural community brought out the sharp contrast there is, between us and them. Of course, I am not saying everything is perfect in the villages and that all of them are virtuous, but by and large, they ‘live’ their values, and it is quite easy and natural for them. They do not make a big fuss about it. If they do something that goes against their values, they are conscious of it and feel a tinge of guilt, but we the educated have no such qualms.

This made me wonder what the main reason was for this difference. I could only come up with one major difference: that they had ‘faith’, and I had none.

The problem of how to develop faith led me to gradually start observing the context behind our activities, because my training was to look at all activities in isolation.

Take for example simple acts like walking, running or swimming. When we think of these activities, our focus is generally on the doer – that is the one who is doing the walking, running or swimming. Instead, I started to look at the context in which these activities were taking place, the essential dependency on this, without which these activities could not happen.

The context is the earth or the ground on which we walk or run, or the water in which we swim. Walking is not possible without the earth beneath us. So, the act of walking is dependent not just on the ‘doer’, but on something more fundamental. This led me to question the huge importance we give to the one who is acting, the doer. But nothing is in isolation.

About twelve years ago I organized a conference on “Indian Languages and Dialects”. In this conference my attention was drawn to the fact that all Indian languages, including all dialects, construct their sentences in a very different manner from the way sentences are constructed in English.

In Indian languages everything ‘happens’. While in English everything is ‘done’. Be it marriage, childbirth, or simply incidents like burning one’s hand or falling down. In English there is always a doer. Whereas, in Indian languages, all these things simply ‘happen’.

I found this very interesting. It led me to understand the famous shloka in the Bhagavad Gita, where it says that the results of one’s actions are not in the control of the doer. There is always more than one cause for something to unfold and many of these causes lie in the domain of the unknown. This is pertinent in relationship to the modern fetish with control. It led me to ponder about the Unknown and Uncertainty.

Finally, this journey developed faith in me. My journey goes on, but this was a major milestone.

विविधता – परंपरा में/ आधुनिकता में (Part 3)

Note: This is the last part of an article written by Pawan Gupta for Madhumati, a journal published from Bikaner, Rajasthan

इसे और खोला जाय तो आधुनिकता ने (पढे-लिखे) मनुष्य का समस्त ध्यान सिर्फ ‘गति’ पर केन्द्रित कर दिया है। ‘गति’ और ‘स्थिति’ के बीच, ‘स्थिति’ की प्राथमिकता को भुला दिया गया है। 1) ‘स्थिति’ की समझ, उसकी वरीयता और 2) ‘स्थिति’ का ‘गति’ से सहज संबंध, इन दोनों सबसे महत्वपूर्ण बातों को, मुख्यतः (आधुनिक) शिक्षा के जरिये और फिर मीडिया और आधुनिक तंत्र के जरिये मनुष्य के ध्यान से लगभग ओझल कर दिया है। पर फिर भी ‘स्थिति’ की वास्तविक्ता तो है ही। उस पर से ध्यान हटा दिया गया है परंतु वे लुप्त नहीं हो गई हैं। मनुष्य में भाव तो उत्पन्न होते ही हैं, होते भी रहेंगे, बावजूद artificial intelligence और robots के। ‘गति’ का सहज संबंध जो ‘स्थिति’ से होना चाहिए; गति, स्थिति से सहज निकले; प्राथमिकता ‘स्थिति’ की होनी चाहिए – वहाँ गड़बड़ कर दी गई है/ हो गई है। निर्णय करने का निर्णायक बिन्दु स्थिति से हट कर गति पर केन्द्रित हो गया है। सम्मान, विश्वास, कृतज्ञता, प्रेम, इत्यादि जो मनुष्य की मूलभूत चाहना में हैं, उनको प्राप्त करने के लिए उन्हे ‘गति’ में – करने में, दिखने/दिखाने में ढूंढा जाने लगा है। यह प्रवृति एक तरफ व्यक्तिवाद, होड़, प्रतिस्पर्धा और द्वेष को प्रोत्साहित करती है और दूसरी तरफ हर तरह के बाज़ार को – सिर्फ भौतिक वस्तुओं का बाज़ार ही नहीं, शिक्षा का बाज़ार, मिडिया का बाज़ार और सबसे बढ़ कर विचारों का बाज़ार – प्रोत्साहित करती है।

तथ्य (fact) और सत्य, जो सनातन होता है, में भेद है। तथ्य सामयिक होता है और स्थान विशेष का होता है। परंतु आधुनिकता ने इस महत्वपूर्ण भेद को धूमिल कर दिया है। बल्कि तथ्य ही, सत्य पर आरोपित हो गया है। उसी तरह जानकारी या सूचना (information), ज्ञान पर आरोपित हो गई है। इसका सबसे जबरदस्त और मजेदार उदाहरण general knowledge या सामान्य ज्ञान की किताबें हैं। इनमे पहले पन्ने से लेकर आखिर के पन्ने तक जानकारी ही जानकारी रहती है पर कहा जाता है – सामान्य ज्ञान! इस तरह के प्रकरण और प्रक्रियाओं की भरमार है, जिन्हे गंभीरता से देखने समझने की ज़रूरत है। इसमे जानकारी, जो एक ऐसी चीज़ है जिसे याद रखना होता है, जो सामयिक है उसे ज्ञान, जो एक बार हो जाय तो अपना हो जाता है और जिसे याद रखने की ज़रूरत नहीं रहती, पर हावी कर दिया गया है। यहाँ तक कहा जाने लगा है कि जानकारी ही ज्ञान है। यह हास्यास्पद तो है पर अत्यंत खतरनाक भी है।

खतरनाक इसलिए है कि इसने आधुनिक मानव की सोचने समझने की क्षमता को ही कुंद कर दिया है। एक तरफ उसे अपने पढे-लिखे और ‘तर्कसंगत’ ढंग (rationally) से सोचने के भयंकर अहंकार से भर दिया गया है और दूसरी तरफ उसे स्वयं की गहरे में बनी हुई मान्यताओं का पता ही नहीं है। वह मान कर चल रहा है पर इस भुलावे में रहता है कि वह जानता है। वह इस भुलावे में है कि वह स्वतंत्र रूप से सोच सकता है परंतु असलियत इससे बिलकुल भिन्न है। वह उतना ही सोच पाता है जितना आधुनिकता उसे सोचने को बाध्य करती है। कम्प्यूटर और मशीनों को चला लेना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह स्वतंत्र रूप से सोच सकता है। जो लोग आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से मुक्त हैं उन्हे कम से कम जानने और मानने का भेद स्पष्ट प्रायः होता है पर आधुनिकता के प्रभाव में जी रहे अधिकांश लोग मानते हुए भी इस भ्रम में रहते हैं कि वे जान रहे हैं। और उनका अहंकार, एक कवच की तरह, इस भेद को स्पष्ट भी नहीं होने देता।   
             
आधुनिक मानव लगभग पूरी तरह आधुनिकता की गिरफ्त में है। वह बुरी तरह परतंत्र है। भौतिक वस्तुओं और जीवन के प्रत्येक आयाम (शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि) में तो है ही परंतु अपने सोचने समझने में भी वह स्वतंत्र नहीं रह गया है। वह अपने को विचारशील मानता है पर असलियत यह है कि उसके विचारों की गहराई उतनी ही है जितनी उसके कपड़ों की। दोनों ही सामयिक फ़ैशन से प्रभावित होते रहते हैं। उनमें मौलिकता प्रायः नहीं है।

यह सब तो वैश्विक स्तर पर हो रहा है परंतु हम भारतियों की हालत और भी नाजुक है। वह इसलिए कि भारतीय रोग का संबंध सिर्फ आधुनिकता से ही नहीं। हमने तो पहले इस्लाम के राज्य में भयंकर हिंसा, आतंक और भय को झेला और फिर अंग्रेजों के युग में इन सब के साथ साथ आत्म-संकोच, अपने प्रति शर्मिंदगी और हीनता के भाव को भी झेलना पड़ा। ये घाव गहरे हैं, पुराने हैं। आज का मनोविज्ञान भी इस तरह के सामूहिक घावों का असर 7 से 12 पीढ़ियों तक मानता है। तो एक तरफ आधुनिकता की मार और दूसरी तरफ पुराने रिसते हुए, पर किसी तरह मरहम-पट्टी करके छुपा कर रखे हुए गहरे घाव, इन दोनों से हमारा समाज ग्रसित है। इसका इलाज इन दोनों बीमारियों को समझे बिना संभव नहीं। पुराने घावों को ईमानदारी से देख और समझने भर की देर है। घावों को छुपा कर उनका इलाज नहीं किया जा सकता। उन्हे हिम्मत से देख कर खुली हवा और धूप ही उनका इलाज है। और आधुनिकता का इलाज उसके मोहजाल और माया जाल को उजागर करके उससे मुक्त होने में है। भ्रम मुक्ति और मोह भंग। उसके बाद भारत की पैठ में वह शक्ति अभी भी है कि वह अपनी जड़ों पर अपनी आधुनिकता को प्रस्फुटित कर देगा। 

(The full article appeared over three weeks on this blog. This is the end of the article, end of part 3)

विविधता – परंपरा में/ आधुनिकता में (Part 2)

Note: This is part 2 of an article written by Pawan Gupta for Madhumati, a journal published from Bikaner, Rajasthan

वास्तविक्ता को दो पहलुओं में देखा समझा जाता है, ये एक दूसरे से कुछ उसी तरह जुड़े होते हैं, जैसे सिक्के के दो पहलू। एक पहलू अदृश्य, निराकार या इंद्रिय निरपेक्ष – ‘होने’ वाला या ‘है’ वाला – और दूसरा इंद्रिय सापेक्ष – ‘करने’ और ‘दिखने’/’दिखाने’ या ‘लगने’ वाला पहलू। इसे ‘स्थिति’ और ‘गति’ का नाम भी दिया जा सकता है। हरेक वास्तविक्ता का अर्थ समझना पड़ता है, उसका अनुभव करना होता है। शिक्षा का यही उद्देश्य है। यहाँ वास्तविकता से सिर्फ भौतिक वास्तविकताओं से तात्पर्य नहीं है वरन उन वास्तविक्ताओं से भी है, जो निराकार और इंद्रिय निरपेक्ष होती हैं। उदाहरण के लिए सम्मान, विश्वास, करुणा, प्रेम, क्रोध, भय, लोभ, मोह इत्यादि का भाव या स्वतन्त्रता, स्वराज, जो अगोचर होते हुए भी, जिनकी वास्तविकता है। भले ही वास्तविकता का अर्थ समझा जाय या न जाय, उसे सही समझा जाय या गलत, उसका अनुभव हो या न हो, वास्ताविक्ता को उससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क समझने/ न समझने वाले को पड़ता है। वास्तविक्ता तो बस है। वास्तविक्ताओं का अर्थ, उसका अगोचर पहलू है। वास्तविक्ता है; अर्थ है; शब्द या नामकरण, किया जाता है – उसे बोला, लिखा, सुना और पढ़ा जाता है। एक ही अर्थ के अलग अलग भाषा-बोलियों में अलग अलग शब्द होते हैं। एक ही भाषा में भी एक से अधिक शब्द हो सकते हैं। इस प्रकार अर्थ, भाषातीत होते हैं और शब्द, भाषा में होते हैं। अर्थ एक, और शब्दों की/में विविधता होती है। इस विविधता में सौंदर्य है। साथ ही अलग अलग (पर्यायवाची) शब्द, अर्थ की अनेकांगी विशेषताओं को उजागर करते हैं। उनकी अपनी विशेषता होती है। यहीं सौंदर्य है, भाषा का सौंदर्य। साथ ही शब्दों का इस्तेमाल जब सिर्फ दिखावे के लिए होने लगता है तो उसमें विकृति और भौंडापन आता है।

जीवन दृष्टि, सिद्धान्त, शाश्वत नियम, शाश्वत सत्य, इत्यादि भी, अर्थ जैसे ही, अगोचर होते हैं – ‘स्थिति’ की कोटि में आते हैं। ये हैं और इन्हे समझना पड़ता है, अनुभव (करना) होता है । यह ‘होने’ या ‘है’ वाला संसार है। ‘करने’ या/और दिखने वाला संसार, प्रत्यक्ष/व्यक्त संसार, इस ‘है’ वाले संसार पर आधारित हो सकता है और भ्रम या असत्य पर भी हो सकता है। जैसे सम्मान के भाव (स्थिति) को, अनेक प्रकार से, समय और स्थान को ध्यान में रख कर, अभिव्यक्त किया (गति) जा सकता है। विविधता इसी करने और दिखने वाले संसार में होती है। जब यह करने वाला संसार सत्य (शाश्वत) की बुनियाद पर खड़ा होता है तो गति (अभिव्यक्ति) में सहजता होती है, यह नैसर्गिक होता है, प्राकृतिक होता है। यही इसका सौंदर्य है। यह मनुष्य के अंदर ऊर्ध्वगामी भावों को प्रोत्साहित करते हैं। स्थिति और गति में लय, सामंजस्य सहजता को जन्म देते हैं। यही असली और गहरी ईमानदारी (authenticity) है।

इसके विपरीत, असत्य या भ्रम पर आधारित दिखने/करने वाला संसार अपने आप में भ्रम फैलाने और बढ़ाने का काम ही कर सकता है इसलिए वैसी विविधता का कोई अर्थ नहीं, वह कृत्रिम, भ्रामक और बदसूरत होती है जो मनुष्य में ईर्ष्या, द्वेष, होड़, इत्यादि विकारों को प्रोत्साहित करती हैं। जैसे सम्मान का प्रदर्शन (गति), सहज रूप से, सम्मान के भाव (स्थिति) से निकले ज़रूरी नहीं। सम्मान का (गति में) दिखावा भी हो सकता है जिसका उसके भाव से या स्थिति से कोई लेना देना नहीं। यह गति कृत्रिम, बे-मानी और धोखा देने वाली होती है। इसकी बुनियाद (सम्मान के) भाव से नियंत्रित नहीं। इस प्रदर्शन या गति में विविधता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यहाँ प्रदर्शन खोखला है, बगैर धुरी के। आधुनिकता में स्थिति की अनदेखी करते हुए इसी प्रकार की गति को प्रोत्साहित किया जा रहा है और उसे विविधता कहा जा रहा। इस विविधतता ने ‘नयेपन’ की बीमारी को जन्म दिया है। यहाँ ‘नये’ को मौलिकता मान लिया गया है। पर मौलिकता तो मूल (धुरी) से जुड़े हुए बगैर हो ही नहीं सकती।
     
आज की आधुनिकता की बुनियाद शाश्वत सत्य पर नहीं खड़ी है। इतना ही नहीं आज की आधुनिकता में तो सत्य की शाश्वतता को ही नकार दिया गया है। “सब का अपना अपना सत्य होता है” को शाश्वत सत्य की तरह स्थापित कर दिया गया है। सब की अपनी अपनी पसंद/ना-पसंद होती है; सबका अपना अपना विचार होता है; सबकी अपनी अपनी कल्पना होती है। पर सत्य? वह कैसे “अपना”, व्यक्तिगत हो सकता है। अगर सत्य है, तो वह तो सार्वजनिन और सार्वकालिक ही होगा। पर आधुनिकता ने अपने प्रचार के बल पर एक असत्य को सत्य पर आरोपित कर दिया है।

(The article appears over three weeks on this blog. This is the end of part 2)

विविधता – परंपरा में/ आधुनिकता में

Note: This is part 1 of an article written for Madhumati, a journal published from Bikaner, Rajasthan

दुनिया एक भयंकर दौर से गुज़र रही है। पिछले 220/250 वर्षों से जो पट्टी हमें पढ़ाई गई है और जिन व्यवस्थाओं का निर्माण किया गया है वे मानव जाति को ही नष्ट करने की ताकत रखती हैं और अब यह साफ नज़र भी आने लगा है। गांधी इसे ‘राक्षसी’ कहते थे। अब उसकी सच्चाई अलग अलग स्तर, जीवन के अलग अलग आयामों में साफ दिखाई देने लगी है। भारत की समस्या इससे भी अधिक विकट है। हमारा रोग एक पुराने रोग के साथ साथ इस आधुनिक रोग का अजीब मिश्रण है। इसे समझने की ज़रूरत है।

इसे कई तरह से समझा जा सकता है। एक होलोग्राम की तरह, कहीं से भी एक सिरा पकड़ कर पूरी बीमारी समझी जा सकती है। और बीमारी को समझने की प्रक्रिया में ही उसका समाधान छुपा है। क्योंकि संपादक जी ने मुझे विविधता का सिरा पकड़ने को कहा तो उसे ही पकड़ कर एक कोशिश की जा रही है।   

**********   

राग एक, अदायगी अनेक। पेड़ की प्रजाति एक, परंतु फिर भी उसी प्रजाति के दो पेड़ एक जैसे नहीं। सब अपनी अपनी छटा, अपनी विशिष्टता लिए हुए। पर मूल में एक, उसमें समानता। विविधता को परंपरा में, भारतीय दृष्टि में, संभवतः ऐसे ही देखा गया है। मूल में नियम बसे होते हैं, जो निराकार, अगोचर होते हैं, उनमें समानता होती है। जो दिखता है, जो करने और दिखने वाला पक्ष है उसमें विविधता; पर वह विविधता गहरे में किसी नियम (नैसर्गिक, शाश्वत अथवा परंपरा से/में बनाए गए) से बंधी रहती है, संयमित रहती है। यह धुरी, विविधता को खूबसूरती प्रदान करती है, उसे संयमित करती है। यह संयम – धुरी में एक, पर अदायगी में अलग, साधना है। साधना पड़ता है।

आधुनिकता को संयम स्वीकार नहीं। आधुनिकता संयम को बंधन मानती है और हर प्रकार के बंधन को अपनी स्वतन्त्रता में बाधा मानती है। परंपरा और आधुनिकता में यह एक बुनियादी भेद है। आज के आधुनिक मानव को कभी न कभी तय करना होगा कि जीवन के उत्कर्ष और श्रेष्ठता के लिए किन्ही मूलभूत नियमों को पहचान कर, संयमित हो कर, जीना है या हर प्रकार के “बंधनों” (नियमों) से मुक्त (अवहेलना कर के) हो कर जीने का प्रयास करना है।

संयम में रहते हुए ही मुक्त हुआ जा सकता है। यह सोच परंपरा में रही है। गहरे में, चिंतन करने पर इस निष्कर्ष पर हरेक पहुंच भी सकता है। संयमित होकर ही – भारत की सभ्यतागत दृष्टि में – स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। संयम और स्वतन्त्रता एक दूसरे के विरोध में नहीं, वरन एक से हो कर, दूसरे तक पहुँचने का मार्ग है। एक तरफ गहरे में, मूलभूत नियमों की स्वीकार्यता और उससे अपने को संयमित करते हुए, करने और दिखने वाले, (इंद्रिय) सापेक्ष पक्षों में, प्रकटण में खुली छूट। इस दृष्टि में – स्वतंत्रता हमें प्राप्त होती है, जब हम उसके योग्य होते हैं, अपने को बनाते हैं, साधना के बल पर।

आधुनिकता के शब्दकोष में, संयम तो है ही नहीं। ऐसा मान लिया गया है कि संयम में बंधन है। और कोई भी बंधन आधुनिकता को स्वीकार्य नहीं। इस दृष्टि में स्वतंत्रता का अर्थ ही गायब है। इस दृष्टि में सिर्फ ‘फ़्रीडम’ है। फ़्रीडम और स्वतन्त्रता एक दूसरे के पर्याय नहीं। फ़्रीडम प्राप्त नहीं होता, उसे लगभग (किसी दूसरे से) छीन कर, मांग कर हासिल किया जाता है। कोई देता है और दूसरा लेता है। इसमें निहित है कि फ़्रीडम लेने वाला एक तरफ और (फ़्रीडम) देने वाला दूसरी तरफ। और निश्चित ही, देने वाला, लेने वाले से ज़्यादा शक्तिशाली होगा। तो फ़्रीडम में बराबरी ढूँढना अपने आप में विरोधाभास है। पर आधुनिकता इस प्रकार के गहरे विरोधाभासों को देखना नहीं चाहती।     

(The article will appear over three weeks on this blog. This is the end of part 1)

साधारण ही श्रेष्ठ थे

भारत में कभी साधारण ही श्रेष्ठ हुआ करते थे। आम कारीगर अपना मालिक था, किसी के मातहत काम नहीं करता था और ये कारीगर उन जातियों से होते थे जिन्हें आज हम पिछड़ा और दलित की श्रेणी में डाल दिये हैं। यहाँ की समृद्धि जिसे पश्चिम के अर्थशास्त्र के इतिहासकार ऊंचे दर्जे की बताते हैं, इन साधारण लोगों की वजह से थी न कि यहाँ के राजा महाराजाओं की वजह से। यह भ्रम की यहाँ हज़ारों वर्षों से इन जातियों पर अत्याचार होते रहे हैं, इस तथ्य के साथ मेल नहीं खाते, पर हम इन विरोधाभासों को देख कर अपने पूर्वाग्रहों को फिर से जांचने को और बदलने को तैयार ही नहीं। अगर अपनी इतिहास दृष्टि बदलनी पड़े तो शायद अपनी राजनैतिक दृष्टि भी बदलनी पड़ सकती है। उसका डर, हमें सच्चाई को देखने से रोकता है।

आजकल शशि थरूर अंग्रेज़ों की लूट पर खूब बोलते हैं। अच्छी से ज़्यादा जटिल और अंग्रेजों की नकल वाले उच्चारण में बोलते हैं तो सम्भवतः ‘लिबरल और सेक्युलर’ भी सुन लेते होंगे। उन्हें बहुत अच्छा तो नहीं लगता होगा, ऐसा मेरा अनुमान है। पर थरूर को सुन लेते होंगे। इसके पहले कितने ही लोगों ने यही सब कहा है – पंडित सुंदर लाल, धरमपाल इत्यादि पर उन्हें कौन पढ़ता है? चलो इस बहाने इस पर बात तो सामने आई। पर थरूर भी 2 और 2 नहीं जोड़ कर दिखाते। लूट हुई, भयंकर लूट हुई यह तो बताते हैं पर यह समृद्धि आई कहाँ से उसकी बात नहीं करते। न इसकी की अगर यह समृद्धि उन कारीगर जातियों की वजह से थी जिन्हें हम आज पिछड़ा औऱ दलित कहते हैं तो फिर यह कैसे संभव है कि ये इतनी दयनीय हालत में हों और उनपर इतने ज़ुल्म होते हों।

हमारे सेक्युलरों को हमारे विगत में कुछ भी अच्छा हो ऐसा नहीं लगता। सब कुछ गलत था। औरतों पर अत्याचार, दलितों पर अत्याचार, पिछड़ों पर अत्याचार, समाज अंधविश्वास में डूबा हुआ, ब्राह्मणों का आडंबर और उनकी लूट, मनु स्मृति समाज को अंधकार में डुबोती हुई, और न जाने क्या क्या। अब ऐसे लोगों के पास समाज को लेकर क्या सपने हो सकते हैं? इनकी कल्पना में क्या आ सकता है? जो आता होगा विदेश से ही आता होगा। और कहाँ से आएगा?

इनको कभी रुक कर इस पर विचार करना चाहिए कि हमारे आदिवासियों के पास इतनी चाँदी कहाँ से आई। इतनी खराब हालत में भी एक आदिवासी महिला 2 या 3 किलो चाँदी के गहने अपने बदन पर पहने रखती है। सेक्युलरों को विचार करना चाहिए कि आखिर उस ‘बेचारी’ के पास इतनी चाँदी आई कहाँ से? और ख्याल रहे कि जहाँ तक मेरी समझ है भारत में चाँदी की एक भी खान नहीं है। तो वे विचार करें यह कहाँ से आई होगी? अगर ईमानदार खोज होगी तो शायद उन्हें भारत के समाज और यहाँ की व्यावसथाओं की कुछ समझ मिले। यहाँ के इतिहास और यहाँ की सभ्यता की कुछ अच्छाइयों की समझ बने। शायद…

(I combined two posts written by Pawanji on his blog on January 22, 2020 to get this one. Hope you like the end result. – Arun)

Dharampal: Unpublished writings

Note: The following is an excerpt from unpublished writings of Dharampal available with SIDH. There is a powerful and coherent story that comes out when these unpublished writings are read together. We are looking for funds for collating and publishing this material as a book. Write to pawansidh@gmail.com if you can help us.

India does not begin in AD 1700, neither does it begin with the Islamic domination of parts of India around AD 1200 or from the incursions of Islam into Sindh in the 7th century AD, or the destruction of Somnath by Mohammad Gazni in the 9th century AD. India has had a very long existence and perhaps for most of this existence it had a very prosperous, scholarly, aesthetic society and vibrant polity. As an instance, modern western scholars have recently worked out that till about AD 1750 the China region and the India region together produced some 73% of the manufacturing output of the whole world. Even after the breakdown of the states and societies of these regions, industrial production was still around 60% of the world, till around 1830.

In recent years a few scholarly works have come out regarding the relations between India and China in the early 15th century. There is much information on the visits of the Chinese Admiral Zeng Ho to various countries of Asia and Africa including visits to India, especially several months stay in Calicut in 1405. In 1405 he was in Calicut with 300 ships and some 30,000 soldiers. Around the same time there were several Chinese ambassadors to Bengal and it is also stated that a number of ambassadors from Bengal had gone to China during the 15th century. There were probably similar links between China and other regions of India not only in the 15th century but perhaps from much before the beginning of the Christian era. If there were such links with China, it should imply that political, cultural and commercial links also existed with several other countries in east and Southeast Asia just as they existed with some of the Arab countries. The information which we get from these sources would not only help us re-build our relations with our neighbors but also may be of value in knowing more about our society of those times.

Such exploration and study of whatever is newly found could however lead man in several directions. Much of the research of the West since 1450 has led it to the conquest of the world and its plunder and the destruction of the environment as well as suppression and elimination of other human communities. In a way most of western research has been an accompaniment of despotism and worldwide imperialism.

It is possible that what has happened in the west could happen, in some distant future, in India also. But the greater chance in India, given India’s relative inwardness and pacific and non-violent nature and the slowness with which it moves, if it moves at all, is that such things would not conceivably happen in India. And at any rate, given India’s present absence of self-awareness, India must try to know itself by knowing what happened in its past over the past several thousand years.

हमारा इतिहास बोध

Note: This week’s post was published on Pawan Gupta’s blog dayaron se pare on January 22, 2020. Over the coming weeks some selected articles will be posted here but interested people may find it rewarding to visit ‘dayaron se pare’ and read all the posts there.

हमारा इतिहास बोध लगभग खत्म सा हो गया है। अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत के चक्कर में। पढ़े लिखे समूह में एक मोटी समझ यह बन गई है कि इतिहास में/से सीखने समझने जैसा कुछ नहीं है। हमारे यहाँ विशेषकर, सिवाय गंध, कूड़े, खराबी, छुआ छूत, गरीबी, भूखमरी, दीनता के अलावा कुछ है नहीं। और संसार के स्तर पर भी यह मान लिया गया है कि हमने तो हर क्षेत्र में पहले के मुकाबले “प्रगति” ही की है, तो विगत को देखने, समझने का कया फायदा? यह मोटी समझ बन गई है।

जब भी मैं अपने यहाँ के किसी उजले पक्ष की कोई बात करता हूँ तो यह तोहमत लगती है कि ठीक है पर सब कुछ अच्छा ही अच्छा था, ऐसा भी नहीं। तो भई, ऐसा कौन कह रहा है? मैं तो मोटे तौर पर बने narrative को चुनौती दे कर कुछ और देखने को प्रेरित करने की कोशिश करता हूँ। बस। मुझे जो narrative प्रचलन में आ गया है, जो सत्य नहीं है, जो आम पढ़े लिखे के दिमाग पर छा सा गया है उसे थोड़ा हिलाना डुलाना है। वह भी हो सके तो। सब कुछ अच्छा तो कभी भी नहीं रहा होगा। न राम के ज़माने में, न कृष्ण के ज़माने में, न बुद्ध और महावीर के ज़माने में और न ही ईसा या मोहम्मद के ज़माने में। सब कुछ अच्छा कुछ होता नही। साधारण ही श्रेष्ठ है और साधारण अपनी कमियाँ और त्रुटियां लिए होती हैं। प्रश्न सिर्फ यह होता है कि कुल मिला कर कैसा हो। सब कुछ अच्छा या सब कुछ बुरा यह either/or वाली आधुनिक सोच है जो सिर्फ असत्य के बीच झूलती रहती है। एक असत्य से दूसरे असत्य की ओर पेंडुलम की तरह। क्योंकि सत्य छोर या extreme पर नहीं होता। उसे कहीं बीच में, दाँये बायें तलाशना पड़ता है। मेहनत करनी होती है।

पर विगत से सम्बंध बनाये बगैर, अपना व्यक्तिगत विगत और सामाजिक विगत, दोनों, आगे का रास्ता खुलता नहीं। यह एक सत्य है। विगत को समझे बिना, उससे सुलह किये बिना, बगैर लाग लपेट के उसे देखे बिना, आगे के रास्ते खुलते नहीं। विगत पर झूठा गर्व जितना खतरनाक है, उतना ही खतरनाक या उससे ज़्यादा है उसे दुत्कारना, उससे नफरत करना।

हमारी आधुनिक शिक्षा ने हमारे विगत से हमारा या तो सम्बन्ध विच्छेद कर दिया है या उससे नफरत करना सीखा दिया है और अब उसकी प्रतिक्रिया में कुछ लोग उसका महिमामंडन करने लगे हैं। कुछ चीज़ें गौरवशाली होते हुए उसके दूसरे पक्षों को भी देखने की ज़रूरत है।