‘कहने’ और ‘होने का’ भेद

हमारे चारों ओर बहुत कुछ कहा जा रहा है। उसमें से कुछ समझ में आता भी है और कुछ नहीं भी आता। कुछ है जो भीतर ठहर जाता है। और कुछ है जो सुनाई भी नहीं देता। इस पूरी स्थिति को थोड़ा बारीकी से देखने पर मुख्य तौर पर दो तरह की स्थितियाँ मुझे दिखायी देती हैं।

पहली स्थिति है, जब हम कोई बात कहते हैं तो ‘मैं’ केन्द्र में होता हूँ। दूसरी स्थिति है; ‘मैं’ केन्द्र में नहीं हूँ जो ‘बात’ कही जा रही है वह ‘बात’ केन्द्र में है। साधारण आदमी अक्सर प्रथम स्थिति में ही रहता है अर्थात वह स्वयं को केन्द्र में रखकर ही वह अपनी बात कहता है। अर्थात वह जो भी बात कह रहा है उसका सीधे तौर पर उसके जीवन से जुड़ाव है या उस बात का उस पर कोई असर पड़ने वाला है। वह जो भी बात कह रहा है वह उससे अलग नहीं है। वह कह रहा है कि भक्ति, श्रद्धा आदि महत्वपूर्ण है तो उसके लिए है। उसकी बात के पीछे बहुत सोच भी नहीं है। सीधा-सीधा मामला है। वह जो भी शब्द कह रहा है उसके अर्थ उसके भीतर हैं। हो सकता है कई बार वह सही शब्द का प्रयोग ना भी कर रहा हो लेकिन उसके भीतर अर्थ ठीक ही हैं। क्योंकि केन्द्र में वह स्वयं है। वह सभी प्रयोग स्वयं के साथ ही कर रहा है। वह किसी अन्य के लिए के कोई बात नहीं कह रहा है। वह तो स्वयं के लिए ही कह रहा है। उसका स्वयं का प्रयोग है और जिस वस्तु पर वह प्रयोग कर रहा है वह वस्तु भी वह स्वयं ही है। यह साधारण आदमी सुनता भी इसी तरह से है जैसे ही उसके कानों में कोई बात पड़ती है वह उसके अर्थ को अपने भीतर स्वयं से जोड़ कर देखता है, सकारात्मक तौर पर अगर वह अर्थ उससे जुड़ता है तो वह बात अच्छी लगेगी। यदि वह अर्थ उसके किसी नाकारात्मक पक्ष को वह बात उभारता है तो वह बात उसे बुरी लगेगी।

प्रथम स्थिति में आपके साथ जो भी हो रहा है उसे ही आप कह रहे हैं। जो भी घट रहा है आप उसे जैसा का तैसा कह रहे हैं। उस समय की आपकी मनःस्थिति और आपके आसपास की परिस्थिति भी अपनी भूमिका अदा कर रही है। आप कुछ भी गलत नहीं कह रहे हैं लेकिन आप बिलकुल सत्य ही कह रहे हों यह भी आवश्यक नहीं है। आप बस अपनी बात कह रहे हैं। आप बहुत विशलेषण नहीं कर रहे हैं। कोई बहुत बड़ी सैद्धान्तिक बात भी नहीं कह रहे हैं। कई बार इसे नालायकी भी कहा जा सकता है। क्योंकि बुद्धि नहीं लग रही है तो सही शब्द भी प्रयोग नहीं हो रहा है और ना ही सही वाक्य विनियास है। भाषा का तो अता-पता ही नहीं है। इस स्थिति में संवाद हमेशा ही एक समस्या रहेगी।    

दूसरी स्थिति है जब ‘मैं’ केन्द्र में नहीं हूँ और मेरे द्वारा कही जा रही ‘बात’ केन्द्र में है। मैं जो कह रहा हूँ वह दूसरों के लिए कह रहा हूँ। बड़े ज्ञानीजन इस स्थिति को प्राप्त होते हैं। वह उनके चित्त में आई सोच को तथ्य के रूप में देख सकते हैं व उससे बिना किसी जुड़ाव के उसका विश्लेषण भी कर सकते हैं। उनमें यह एक तरह का दृष्टा भाव है। वह अपनी विलक्षण बुद्धि के द्वारा चित्त में आई सोच का बारीकी से विशलेषण करने के बाद जो भी तथ्य उनके सामने आ रहा है उसे सही शब्दों द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। हालांकि उनके इस विशलेषण में उनके भीतर गहरे में जुड़ी ‘मान्यतायें’ या ‘कंडिशनिंग’ अपनी भूमिका अदा कर सकती है यदि वे उसके प्रति सजग न हों तो। मान लेते हैं कि वे सजग भी हैं फिर भी विश्लेषण तो बुद्धि द्वारा ही हो रहा है और बुद्धि की अपनी एक सीमा है। इसमें अनुभव नहीं है। यह अनुभव रहित ज्ञान है। इस स्थिति में एक दूसरी जो घटना भी घटती है वह यह है कि उनके द्वारा कही जा रही बात का उनके जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता। क्योंकि वह अपने द्वारा कही जा रही बातों के केन्द्र में हैं ही नहीं, उनका उससे कोई जुड़ाव भी नहीं है। यह सही है कि इस स्थिति में वे कभी झूठ नहीं बोलते हैं, उनको दिखे तथ्यों के आधार पर वह सही ही बोलते हैं (मैं सत्य नहीं कह रहा हूँ सही कह रहा हूँ।)। तथ्यों को सही तरह प्रस्तुत करना एक बहुत बड़ी बात है, साधारण नही है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि उनके द्वारा कही जा रही बातों के केन्द्र में उनका जीवन नहीं है। केन्द्र में मात्र उनकी बातें हैं जो बुद्धि द्वारा जनित हैं। उनके अनुभव द्वारा नहीं। वे बोलते रहते हैं, लेकिन उनके जीवन में बहुत कुछ बदलता नहीं है और ना ही उनके आसपास कुछ बदलता है। लेकिन उनकी बातें बहुत सुनी जाती हैं, पढ़ी जाती हैं, देखी जाती हैं। क्योंकि वह बुद्धि द्वारा बहुत गहनता से विश्लेषित होती हैं, तथ्यों पर आधारित होती हैं, बारीक से बारीक बिन्दु की भी बहुत अच्छे से व्याख्या की जाती है। बुद्धि का भरपूर उपयोग होता है इसलिए शब्द-भाषा आदि सभी कुछ उच्च कोटी को होता है। इसलिए लोग प्रभावित भी होते हैं लेकिन प्रेरित नहीं हो पाते। उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आ पाता। कुछ समय के लिए लोग उलझ सकते हैं, लेकिन फिर सम्भल जाते हैं। आजकल के बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों का जीवन इसी तरह की बातों से चल रहा है। पूरे आदर और सम्मान के साथ ओशो, जग्गी वासूदेव ‘सदगुरु’, श्री श्री रविशंकर आदि सभी इसी श्रेणी में ही आते हैं। मैंने पहले ही कहा यह लोग झूठ नहीं बोलते हैं, कोई बेईमानी भी नहीं करते, बस यह ऐसे ही बने हैं। अपनी बात कर रहे हैं, उसे देख भी रहे हैं, अपनी विशेष बुद्धि को लगाकर उसका विश्लेषण कर रहे हैं, तथ्य के आधार पर जैसा वो समझ रहे हैं आम जानमानस के भले के लिए वैसा ही कह भी रहे हैं। लेकिन उनके द्वारा कही जा रही बातों के केन्द्र में वे नहीं हैं। उनके द्वारा जो भी कहा जा रहा है वह उनके लिए प्रयोग का एक तथ्य है, एक फैक्ट है। जिसे वह अपनी बुद्धि के बल पर देख पा रहे हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए इस स्थिति को प्राप्त होना बहुत महत्वपूर्ण है, यदा-कदा लोग ही इस स्थिति पर पहुँचते हैं। यह सभी लोग एक तरह से दृष्टा ही हैं। सिद्धान्तों को समझने के लिए इनकी बातें बहुत महत्वपूर्ण भी हो सकती हैं।

आम आदमी की या मेरी यह स्थिति नहीं है। मैं कुछ देर या कुछ वर्षों के लिए तो उलझ सकता हूँ लेकिन उससे कुछ निकलता नहीं है। सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि मैं उनकी बात को उनके अर्थों में सुन भी नहीं पा रहा होता हूँ। क्योंकि जैसे ही उनकी बात मेरे कानों पर पड़ती है मैं उसके अर्थ को अपने भीतर स्वयं से जोड़ कर देखना चाहता हूँ अर्थात केन्द्र में वह बात नहीं रहती बल्कि केन्द्र में ‘मैं’ आ जाता हूँ। इसलिए उन बातों के अर्थ मेरे लिए बदल जाते हैं। कुछ अर्थों में यह भी कहा जा सकता है कि मैं उन बातों को समझता ही नहीं हूँ। वे सिर्फ बातें हैं उन्हें सिर्फ बातों की तरह ही सुना जाना चाहिए था लेकिन मैं स्वयं को केन्द्र में रख देता हूँ। उनके जो अर्थ मुझे समझ में आते हैं उससे मैं कुछ देर के लिए तो प्रभावित हो जाता हूँ। इसके चलते मैं अपने को बदलने का प्रयास भी करने लगता हूँ। लेकिन मूल रूप से मुझमें कुछ बदलता नहीं हूँ। क्योंकि यह बदलाव का प्रयास भी बुद्धि जनित ही है। यहाँ मैं ‘कुछ करने’ का प्रयास करने लगता हूँ। मैं जो हूँ उससे कुछ अलग हो जाने का प्रयास। इस प्रक्रिया में मैं कुछ समय के लिए खुद को खोने लगता हूँ। उसे ही उलझन कहते हैं। लेकिन फिर ईश्वर की कृपा बरसती है और हम सम्भलने भी लगते हैं। विशेष से फिर साधारण बनने लगते हैं। यह साधारण मन ही ईश्वर के बहुत करीब है। और ईश्वर तक बुद्धि के बल पर तो नहीं ही पहुँच सकते हैं।

ऊपर एक शब्द आया ‘बदलाव’। यह ‘बदलाव’ क्या है? क्या हम ‘बदलाव’ को ठीक से देख पा रहे हैं? इसे हम दो प्रकार से देख सकते हैं। पहला बदलाव तो वह है जो हमारे करने से होता है। उदाहरणः मुझे लगता है कि यदि मैं कुर्ता-पजामा या धोती-कुर्ता पहनने लगूँ तो लोग मुझे एक अलग दृष्टि से देखेंगे। या मैं सबसे से प्रेम से बात करूँ तो सभी मुझे अच्छा समझने लगेंगे। दोनों ही परिस्थितियों में कोई दोष नहीं है ना तो धोती-कूर्ता पहनने में और ना ही प्रेम से बात करने में। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या मैं वह हूँ जो दिखने या बनने कि मैं कोशिश कर रहा हूँ। मेरे होने और मेरे दिखने में बहुत बारीक भेद है। मूल रूप से ही मैं कुछ हूँ, वह मेरी वास्तविकता है। इसके बाद जीवन के अनुभवों व शिक्षा से मेरे भीतर कुछ घटता भी है और मैं कुछ और भी होने लगता हूँ। उदाहरण के लिए यदि मेरे भीतर सादगी घटेगी, सेवा का भाव आयेगा तो शायद मैं सहजता से कूर्ता-पजामा पहनने लगूंगा। मेरे व्यवहार में प्रेम दिखायी देने लगेगा। वह बेहद सहज होगा और मेरे होने का हिस्सा होगा। इसके विपरीत जब मैं यह दिखाने का प्रयास करूँगा कि मैं बहुत प्रेमी व्यक्ति हूँ और मैं सभी की सेवा करना चाहता हूँ तो भी मेरे भीतर एक तरह का बदलाव होगा लेकिन वह सहज नहीं होगा। ढ़ोग होगा। आदर्शवाद इसी पर टिका है वहाँ सभी कुछ दिखाने भर के लिए है। वास्तव में कुछ है नहीं। इसका दूसरा पक्ष भी देखते हैं; हम जब भी कोई बात करते हैं यदि केन्द्र में कही जा रही वह बात होती है ‘मैं’ नहीं होता तो ‘मुझमें’ कुछ विशेष नहीं बदलता। उदाहरण : मैं कह रहा हूँ कि ‘अनिश्चितता निहित है’। यदि मैं इसी तथ्य को सिर्फ एक बात की तरह कह रहा हूँ तो मेरे भीतर कुछ नहीं बदलेगा और मेरा प्रयास अपने चारों और निश्चितता लाने का ही रहेगा। जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण ‘मैं’ केन्द्रित होगा। अच्छे या बुरे – सभी कुछ का जिम्मेदार ‘मैं’ ही हूँ। इस दृष्टिकोण वाला व्यक्ति मन्दिर जायेगा तो मानेगा कि मैं जा रहा हूँ। मेरी प्रभु में बड़ी आस्था है। इससे वह विशेष हो जायेगा।

‘अनिश्चितता निहित है’ इस बात के केन्द्र में यदि ‘मैं’ हूँ तो यह मेरे होने का हिस्सा हो सकता है। इससे जीवन के प्रति मेरा पूरा दृष्टिकोण ही बदल सकता है। ऐसा होने पर मैं बहुत सहज हो जाऊँगा और ईश्वर के प्रति मेरी श्रद्धा भी मेरे होने का ही हिस्सा हो जायेगी। इस दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कभी भी विशेष नहीं होगा। वह हमेशा साधारण ही रहेगा। कहने का अभिप्राय मात्र यह है कि यदि अपनी बातों के केन्द्र में हम स्वयं हैं तो इससे हममें कुछ बदलाव घटित होने लगता है अन्यथा यह बदलाव घटित नहीं होता। हमारा ‘होना’ या ‘ना होना’ भी हमारे हाथ में बहुत नहीं है, सभी कुछ प्रभु की माया है। वही जानता है।

कुल सार यह है कि ‘मैं जो कह रहा हूँ’ वह महत्वपूर्ण नहीं है। ‘वास्तव में मैं जो हूँ’ वह महत्वपूर्ण है। अंततः वही Matter करता है और वह प्रभावकारी भी होता है। रमण महर्षि, राम कृष्ण परमहंस और बहुत हद तक गाँधी जी भी इसलिए इस दृष्टि से मुझे प्रभावकारी लगते हैं।

अनिल मैखुरी

29 सितम्बर, 2024          


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