(This was written in February 2021 for ‘Yathavat’ a magazine that is published from Delhi)
यह धरमपाल जी का शताब्दी वर्ष है। जगह जगह छोटे बड़े कार्यक्रम हो रहे हैं। अभी 19 तारीख को धरमपाल जी के जन्मदिवस पर प्रधानमंत्री ने शांति निकेतन, बंगाल में दिये अपने एक भाषण में शिवाजी जयंती, जो उसी दिन पड़ती है, के साथ धरमपाल जी के शोध का कुछ विस्तार से ज़िक्र भी किया। हाल में उनको लेकर एक सुगबुगाहट सी देखने को मिलती है।
देश में कई दशकों से एक प्रकार के विचार और भारत के विगत के बारे में एक खास प्रकार के मिथक प्रभावी रहें हैं। उसमें, और महात्मा गाँधी जिस ओर – ‘स्व-राज’ की दिशा में – देश को ले जाना चाहते थे, इन दोनों के बीच कोई सामंजस्य नहीं था। और धरमपाल जी की अपनी अनूठी शोध से जो दृष्टि बनी उसके लिए भी, आज़ादी के बाद बुद्धिजीवी जगत और राजनीति के क्षेत्र में (गाँधीवादियों समेत) जो वर्ग प्रभावी रहा उसमें इस तरह के विचारों के लिए जगह मिलना बहुत मुश्किल रहा है। पर अब लगता है की छोटे-मोटे ही सही पर धरमपाल की बातों के लिए कुछ रास्ते खुले हैं। अब जो लोग उनके काम को गहराई से समझते हैं उन पर निर्भर है कि वे इसका लाभ उठायें और उनके काम को आगे बढ़ायें।
धरमपाल जी के कई पक्षों पर बात हो सकती है। अधिकतर उनपर जब बातें होती हैं वे उनके शोध कार्य, जो अत्यंत महत्वपूर्ण है, तक सीमित हो जाती हैं। और अमूमन यह महज एक exotic जानकारी और अपने विगत के बारे में कोरे अहंकार तक ही सीमित हो कर रह जाती है । कुछ खुश हो जाते हैं, कुछ इन पर प्रश्न खड़े करने लगते हैं/ या इनकी अवहेलना/अनदेखी करने लगते हैं। देश के प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग को सत्य से ज़्यादा अपनी पहचान से प्रेम है और उनकी पहचान जिन वैचारिक आधारों पर खड़ी है, वह धरमपाल के कार्य से उलट हैं। इसलिए यह वर्ग आज तक धरमपाल जी के अत्यंत महत्वपूर्ण काम की अवहेलना करते रहा है।
पर धरमपाल जी के कार्य को महज जानकारी के तौर पर देखने और वहीं तक सीमित कर देने से, इस कार्य में अंतरनिहित अनेक महत्वपूर्ण और ज़रूरी पक्षों से हम वंचित रह जायेंगे। धरमपाल जी का समस्त कार्य देश और पश्चिम को समझने की एक कोशिश थी,जिसकी प्रेरणा के पीछे देश को लेकर एक गहरी पीड़ा और व्यथा थी। धरमपाल जी ने तो अपनी स्नातक की पढ़ाई 1942 में बीच में ही छोड़ दी थी। वे कोई आजकल जिसे इतिहासकार कहा जाता है वैसे इतिहासकार तो थे नहीं। उनका शोध समझने के लिए था कोई डिग्री पाने के लिए नहीं। इसलिए उसमें मौलिकता है। जिन लेखागारों और पुस्तकालयों में उन्होंने बरसों तपस्या की और जिन दस्तावेज़ों को देखकर उन्होंने भारत की जो तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत की, उन दस्तावेज़ों को अन्य लोगों ने भी देखा ही होगा पर वे वह देख नहीं पाये जो धरमपाल देख पाये। ऐसा क्यों होता है कि हम देख कर भी वह नहीं देख पाते, सुन कर भी वो नहीं सुन पाते जो महात्मा गांधी, धरमपाल और रविंद्र शर्मा “गुरूजी” जैसे लोग कर पाते हैं? संभवतः इसलिए कि ये लोग दूसरों के द्वारा भारत के बारे में, सदियों से बनाई गई तस्वीर और उससे जुड़ी मान्यताओं से प्रभावित हुए बगैर, खुले दिमाग से देखते, सुनते और उस पर मनन करते हैं। जो लोग धरमपाल जी के काम से रोमांचित होते हैं उन्हे इस बात को पकड़ने की आवश्यकता है।
(Part 2 will be published here next week)
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