धरमपाल: सहजता और आत्म विश्‍वास कैसे लौटे (Part 2 of 2)

(This was written in February 2021 for ‘Yathavat’ a magazine that is published from Delhi)

धरमपाल जी के शोध कार्य का संभवतः सिर्फ साठ प्रतिशत या उससे भी कम ही प्रकाशित हो पाया है। पर ऐसा लगता है बरसों की तपस्या के बाद दस्तावेज़ों को पढ़ते पढ़ते, महात्मा गांधी को पढ़ते और समझते हुए और साथ ही भारत के साधारण और साधारण लोक जीवन को देखते हुए उन्होंने इन अलग अलग क्षेत्रों में हुई समझ को आपस में जोड़ने का सतत प्रयत्न किया। आजकल विशेषज्ञों और विशेषज्ञता का ज़माना है जिसमें ज्ञान अलग अलग खांचों में सीमित हो कर ही रह जाता है। पर जीवन की वास्तविकता है कि हर चीज़ हर दूसरी चीज़ से जुड़ी होती है – सीधे सीधे या घुमावदार, थोड़ा जटिल रास्तों से। धरमपाल जी की समग्रता में चीज़ों को देखने और जोड़ने की वजह से उन्हें भारत और पश्चिम के बारे में एक मौलिक समझ बनी जिसका प्रमाण उनके “भारतीय, चित्त, मानस काल” में मिलता है, जो संभवतः उनके बरसों के काम के निचोड़, उससे जनित दृष्टि और समझ से निकला लगता है। महात्मा गांधी की तरह उन्हें भी भारत के साधारण लोक जीवन की श्रेष्ठता दिखाई देने लगी। यहाँ के साधारण के व्यवहार, मान्यताओं, काम करने और सोचने के तरीकों में उन्हें श्रेष्ठता दिखाई दी और साथ ही आधुनिक (पश्चिमी) व्यवस्थाओं, तौर तरीकों में, छद्म रूप से, निहित हिंसा, शोषण, नियंत्रण करने की प्रवृति, भी साफ़ साफ़ दिखाई दी। इसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि भारत का लोक मानस और यह आधुनिक व्यवस्था जिन प्रवृतियों को उकसाती हैं या जिस ओर मनुष्य को जाने को लगभग विवश करती हैं, इन दोनों के बीच टकराव है, दोनों की बैठकें अलग अलग हैं। हामारा मानस इस आधुनिकता के साथ बैठता नहीं और हमे लगातार एक पराये और प्रतिकूल वातावरण में अपने को ढालने का प्रयास करना पड़ता है।

धरमपाल जी का शोध, चाहे वह शिक्षा व्यवस्था की बात हो, यहाँ की उन्नत तकनीक और विज्ञान की बात हो, यहाँ के विरोध जताने के तरीकों की बातें हों – ये सब हमें अनोखी लगती हैं। इसलिए भी कि जो तस्वीर भारत की इतने वर्षों में गढ़ी गई, वह इसके लगभग विपरीत बैठती है। इनको जान कर हमे गर्व भी होना स्वाभाविक है पर हमारा ध्यान इस बात पर जाना और भी ज़रूरी है कि वो कौन से कारण थे, जिनसे यह सब संभव हो पाया। उन मान्यताओं, जीवन दृष्टि और व्यवस्थाओं के सिद्धांतों को हमें पकड़ना है जिसके लिए शोध के साथ साथ, गहरे मनन और मौलिक चिंतन ज़रूरी है। और इसके लिए कुछ समय के लिए मुक्त भाव से सोचने की ज़रूरत, बगैर पश्चिम को देखे। जैसे अच्छे बच्चे हर काम को करते वक्त अपने माँ-पिता की ओर देखते रहते हैं कि उन्हें कैसा लग रहा है, उनकी सराहना मिल रही है या नहीं – ऐसा ही कुछ हाल हमारी प्रभावी बौद्धिकता का हो गया है। इस प्रवृति को हम में से कुछ लोगों को कुछ समय के लिए त्यागना पड़ेगा। यह हर महत्वपूर्ण बात के लिए पश्चिम की ओर देखने से हमारा लाभ कम और नुकसान ज़्यादा हो रहा है। हम अब हर क्षेत्र में उनकी नकल करने लगे हैं और इसका एक असर यह होता है कि हम देख कर भी नहीं देख पाते, सुन कर भी नहीं सुन पाते और मौलिकता से कोसों दूर हो गए हैं। यह बीमारी हमारी मीडिया, बौद्धिक जगत, राजनीति, शिक्षा, तकनीक और विज्ञान, खेती, आंदोलनकारियों सभी को लग गई है। इससे मुक्त हुए बगैर हम न तो ढंग से काम कर पाएंगे और न ही अपनी मानस के अनुकूल व्यवस्थाएं खड़ी कर पाएंगे। और अपने स्वभाव के अनुकूल व्यवस्थाएं जब तक नहीं होंगी तब तक हम असल माने में न तो स्वतंत्र होंगे, न सहज और न ही वास्तविक आत्मविश्वास हम में आ पाएगा। धरमपाल जी की असली चिंता और प्रयत्न यही था।