सहज दृष्टा

जिन्हें भी हम स्वयं को समझने के लिए या संसार को समझने के लिए आदर्श मानते हैं उनमें जे. कृष्णमूर्ती, रमण महर्षी, ओशा आदि या विपश्यना, उपनिषद, वेद आदि शामिल हैं, वे सभी किसी ना किसी रूप में दृष्टा की बात करते हैं। जे. कृष्णमूर्ती उसे बिना अपने किसी पूर्वाग्रह के और उससे महत्वपूर्ण बिना किसी विचार के observe करने को कहते हैं। रमण उसे ‘मैं कौन हूँ’ की गहराईयों में जाने के तौर पर कहते हैं। ओशो उसे मन की किसी भी स्थिति में सचेत होकर, रुककर देखना कहते हैं, वे कहते हैं क्रिया से अलग होकर देखने का अभ्यास कीजिए। विपश्यना तो हमें अपने शरीर को माध्यम बना हृदय की गहराईयों तक देखने की पूरी तकनीक ही प्रदान करती है। उपनिषद में बृहदारण्यकोपनिषद अथ तृतीयोऽध्यायए के सप्तमं ब्राह्मण के 23वें श्लोक में दृष्टा या साक्षी को ‘आपकी अमर आत्मा’ कहा गया है :-

‘‘जो जननेन्द्रिय में निवास करती है, लेकिन उसके भीतर है, जिसे जननेन्द्रिय नहीं जानती, जिसकी देह जननेन्द्रिय हैं, और जो भीतर से जननेन्द्रिय को नियंत्रित करती है, वही आंतरिक शासक है, आपकी अमर आत्मा। वह कभी दिखाई नहीं देती, परंतु साक्षी है; वह कभी सुनी नहीं जाती, परंतु श्रोता है; वह कभी विचार नहीं की जाती, परंतु विचारक है; वह कभी जानी नहीं जाती, परंतु ज्ञाता है। उसके अलावा कोई और साक्षी नहीं है, कोई और श्रोता नहीं है, कोई और विचारक नहीं है, कोई और ज्ञाता नहीं है। वही आंतरिक शासक है, आपकी अमर आत्मा। उसके अलावा सब कुछ नश्वर है।’’

(यह अनुवाद https://vivekavani.com से लिया गया है)

दृष्टा होना या देखना इतना महत्वपूर्ण क्यों है? और यह देखना ही इतना प्रदूषित क्यों है? देखना ही तो है, यह तो सहज होना चाहिए। उपनिषद के उपरोक्त श्लोक व हमारे स्वयं के अनुभव से यह आश्रय निकाला जा सकता है कि हम सभी सहज दृष्टा या साक्षी हैं, बस उस ओर हमारा ध्यान नहीं है। हम सभी का यह अनुभव होगा ही कि किसी दृश्य को हम बारमबार देखते हैं लेकिन उसकी ओर कभी ध्यान नहीं देते तो वह अनदेखा ही रह जाता है। लेकिन यदि कोई ध्यान दिला दे तो उसका स्वरूप हमें दिखने लगता है। उदाहरण के लिए हम आकाश में तारों को समूहों को देखते हीं हैं लेकिन उनसे बनने वाली आकृतियाँ हमें तभी दिखायी देती जब हम स्वयं ध्यान दें या कोई हमारा ध्यान उस ओर दिला दे। कहने का कुल आश्रय यह है कि हम सभी सहज दृष्टा हैं यह कोई विशेष क्षमता नहीं है लेकिन हमें उस ओर ध्यान देना होता है तो अपने भीतर की गहराईयाँ दिखने लगती हैं। जिन भी लोगों स्वयं के भीतर की स्थिति को जैसी वह हैं वैसा देखा है उन्होंने इसके लिए निरन्तर प्रयत्न किया है जिसे वह ध्यान या तपस्या भी कहते हैं। मेरा स्वयं का अनुभव तो अभी नहीं है लेकिन मैंने जिन भी गुरुजनों को सुना और उनसे जैसा मैंने समझा उसके अनुसार एक सीमा आती होगी जिसके बाद दृष्य और दृष्टा में कोई भेद ही नहीं रह जाता होगा। वह परम सीमा जहाँ सहजता ही सहजता है।     

हम एक विशेष आधुनिक परिवेश में रह रहे हैं जिसका प्रभाव हमारी दृष्टि पर पड़ रहा है। बल्कि इससे हमारी दृष्टि निर्मित हो रही है। आधुनिकता हमें वस्तु-स्थिति को उसके यथा स्वरूप् में ‘देखने के लिए’ हत्तोसाहित करती है और ‘विचार करने के’ लिए प्रोत्साहित करती है। विचार करना, देखना नहीं है। बल्कि विचार तो दृष्टा होने के मार्ग में एक बड़े अवरोध हैं, वह इस पूरी प्रक्रिया को जटिल बनाते हैं। हमनें अपने भीतर विचारों का इतना विराठ जमघट इकठ्ठा कर लिया है कि हम हमेशा उसी में उलझे रहते हैं। जब भी हम दृष्टा होने का प्रयास करते हैं तो जाने-अनजाने अपने उन विचारों को ही देखने लगते हैं। जबकि वास्तव में यह विचार हमारे हैं ही नहीं, यह तो कहीं ना कहीं से आयातित हैं। मौलिक मन में तो ‘क्रिया’ स्वस्फूर्त होती होंगी, वहाँ विचारों की भूमिका नगण्य होती होगी। बिना किसी पूर्वनिर्मित विचार के दृष्टा होने की क्रिया नैसर्गिक होती होगी। नैसर्गिक, हमेशा एक लय में होगा, उस लय को प्राप्त करने के लिए किसी योजना की आवश्यकता नहीं होगी। वो तो बस ‘होगा’ उसे किसी के भी द्वारा ‘किया’ नहीं जायेगा। आधुनिकता के प्रभाव आकर हम इस ‘होने’ वाली स्थिति से बाहर निकल गये हैं और ‘करने’ वाली स्थिति में प्रवेश कर गये हैं। ‘करना’ विचारों के अनुसार होता है। यहाँ फिर अच्छे विचार, बुरे विचार, हिंसक विचार, अहिंसक विचार आदि के अनुसार अच्छे कर्म, बुरे कर्म, हिसंक या अहिंसक कर्म आदि का जंजाल शुरू हो जाता है। ‘होना’ इस सभी जंजालों से परे है। वह बस ‘होता’ है। वहाँ ‘अच्छा’ या ‘बुरा’ कुछ नहीं होता। हमारे विचारों से हम इस ‘होने’ की प्रक्रिया को ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ की श्रेणी में डाल देते हैं। आंधी, तुफान, ओला वृष्ठी आदि अनेक प्राकृतिक घटनायें हैं जिन्हें हम बुरा कह सकते हैं लेकिन यह सिर्फ होती भर हैं, हम उन्हें अपने विचारों की सुविधा के अनुसार बुरे की श्रेणी में डाल देते हैं। भगवान कृष्ण, अर्जुन को कोई उपदेश नहीं दे रहे हैं। वह तो ‘क्या है’ यह बता रहे हैं। आधुनिक दिमाग इसका कई प्रकार से विशलेषण कर सकता है। लेकिन वास्तव में यह भी एक होने भर की एक घटना है। उसी तरह भगवान राम के जीवन में भी अनेक घटनायें हैं। इन घटनाओं को किया नहीं जा रहा है वह हो रही हैं। कैकयी और मंथरा जानती ही रही होंगी की वे जो कर रही हैं वह न्याय नहीं है लेकिन रामायण का होना नियति है और कैकयी और मंथरा भी नियति की एक पात्र मात्र हैं। राम के वनवास हो जाने के बाद कैकयी और मंथरा की रामायण में कोई चर्चा नहीं है, क्योंकि उनकी भूमिका वहीं पर पूर्ण हो जाती है। अपनी उस भूमिका में वे कुछ विशेष कर नहीं रही हैं वहाँ भी हो ही रहा है। इस आधार पर तो हम आज यह भी कह सकते हैं कि हम तो कुछ कर नहीं रहे हैं सभी कुछ तो हो रहा है फिर इतने प्रश्न क्यों हैं? इसे भी थोड़ा देखने का प्रयास करते हैं। 

आधुनिकता के मूल में यह अवधारणा है कि मनुष्य को ही सब कुछ करना है, समझना है, अपनी आँखों से देखना है कानों से सुनना है आदि आदि। आधुनिक भगवान भी मनुष्य से यही कह रहा है कि मैं तुझसे अलग हूँ। मैं तो ईश्वर का पुत्र हूँ, पैगम्बर हूँ आदि आदि। तुझे नियमों का पालन करना है। ऐसा करने पर मैं तुम्हें जन्नत प्रदान करुँगा, हैवन में स्थान दूंगा आदि आदि। यहाँ जीवन बहुत सीमित है और उसी में सब कुछ करना है लेकिन जीते-जी कुछ मिलेगा नहीं सब पारितोषिक मरने के बाद। यहाँ कर्म और समय बहुत महत्वपूर्ण हैं। कर्म, मुझे करने हैं और मेरे पास समय बहुत सीमित है। इसलिए जल्दी बाजी है। इसलिए स्पीड है। क्योंकि समय है और वह बहुत सीमित है इसलिए जबरदस्ती का अनुशासन है। विशेषज्ञता है। राज्य है। व्यवस्थायें हैं और उनके लिए प्रबन्धन है। 

आधूनिक युग में हमें सभी कुछ भौतिक जगत में करना है। कुछ स्वतः हो भी रहा है या प्राकृतिक हो रहा है तो उसे भी अपने अनुसार समझना है और फिर उसे अपनी कृत्रिम आवश्यकताओं के अनुसार नियंत्रित कर लेना है। हमें प्रकृति का संरक्षण करना है। हमें सभी रहस्यों को जान लेना है। हमें सभी जीव जन्तुओं को बचा लेना है या मार देना है। आदि आदि। इस अभिमान वाले मानस के चलते दृष्टि एक दिशा में गति करने लगती हैं और फिर बहुत कुछ वह होने लगता है जो अधर्म की क्षेणी आता है। हमारे मानस में जटिलतायें घर जाती हैं और हम विचित्र-विचित्र तर्क करने लगते हैं। मनुष्य मानस की यह स्थिति विनाशकारी है और उसे यह दिख नहीं रहा है वह एक प्रकार की बेहाशी में है। इस स्थिति में कोई भी कुछ विशेष कर नहीं सकता हां यदि हम इस स्थिति को स्वयं में देखने भर लगें तो सभंवतः ईश्वर की कुछ कृपा हमारे ऊपर बरस सकती है।

भारतीय सभ्यता में तो मनुष्य ही बह्म है, जीते जी वह मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। जीवन सीमित नहीं है, अनेकों जन्मों तक फैला हुआ है, इसलिए ऐसा नहीं है कि इसी जीवन में सब कुछ कर लेना है यह तो मुक्ति की ओर एक यात्रा है, जिसे अनेक जीवनों में पूरा किया जाता है। यह मुक्ति कोई ईश्वर नहीं देगा हमें ही प्राप्त होगी, अपनी तपस्या से। तपस्या कोई कर्म नहीं है, वह तो दृष्टा की एक यात्रा है मुक्ति की ओर। एक किवदंती रही है कि गृहस्त आश्रम भी एक तपस्या है या कर्म ही तपस्या है। वह इसी ओर ईशारा करते हैं।      

पिछली कई सदियों से हमें जो शिक्षा मिली है उसने हमें स्वयं के अनुभवों को देखना सिखाया ही नहीं है। और अब तो हम इतने conditioned हो गये हैं कि हम इन आयातित विचारों को ही अपने विचार मानने लगे हैं। इन विचारों के पार ‘देखना’ और भी मुश्किल बन पड़ा है। यह विचार हमारी बहुत बड़ी सम्पत्ति बन गये हैं, इन्हें छोड़ देंगे तो हम मानसिक रूप से बहुत दरिद्र हो जायेंगे ऐसा आभास हमें निरन्तर घेरे रहता है। और दरिद्रता है भी। conditioned से निकल कर उस पार जाने के बीच में एक अन्तराल है जहाँ बहुत दरिद्रता होगी। अभी हमें समृद्धी का भ्रम है जबकि उस पार हम वास्तव में समृद्ध हो सकते हैं लेकिन बीच में दरिद्रता है और उसे स्वीकार करना ही होगा। तभी हम बिना पूर्वाग्रह के और बिना किसी विचार के देख पायेंगे। यह देखना सबका नितान्त व्यक्तिगत होगा, हो सकता है सभी को एक ही सत्य दिखे, लेकिन फिर भी देखना सबको होगा, किसी भी अन्य के दिखे सत्य से, आपको मुक्ति नहीं मिलगी। आपको आपकी ही तपस्या से मुक्ति मिलेगी। अपने दृष्टा होने की तपस्या के मार्ग का चयन कीजिए और सहजता को प्राप्त हो जाइये।

अनिल मैखुरी

21 सितम्बर, 2024


Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (0) in /home2/sidhsri/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 5427