बायनरी सोच और अतिवाद की संभावना
यह “संसार“ या “जगत“ विचारों से उत्पन्न होता है, और विचार मान्यताओं पर आधारित होते हैं। इन मान्यताओं के आधार कौन से हैं—वास्तविकता या कल्पना—यह जाँचने का विषय है।
आधुनिक संसार की अधिकतर अवधारणाएँ काल्पनिक मान्यताओं पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए, उदारवाद में दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं—“अधिकार“ और “समानता“। इसमें महिलाओं, बच्चों, मजदूरों, किसानों और सम्पूर्ण मानवता के लिए अधिकारों की कल्पना की गई है। वास्तव में, अधिकार जैसा कुछ अस्तित्व में नहीं है। इन कल्पनाओं के मूल में “ऐसा होना चाहिए“ जैसी मान्यता है। वास्तविकता में “क्या है”—इस पर विचार न तो जरूरी समझा जाता है और न ही इसे देखने की सामर्थ्य किसी में है। आधुनिक युग में ऐसी ही कई कल्पनाओं पर आधारित अवधारणाएँ “अंतिम सत्य” मानी जाने लगी हैं, और इनके बाहर कोई चर्चा संभव नहीं रह गई है।
कुछ कृत्रिम विचार सूचना पर भी आधारित होते हैं, जैसे समय। समय मात्र गणना की सुविधा के लिए बनाया गया एक ढाँचा है। हम बच्चों को सिखाते हैं कि पृथ्वी अपनी धूरी पर 24 घंटे में एक चक्कर लगाती है, जबकि वास्तविकता यह है कि जिस अवधि में पृथ्वी अपनी धूरी पर एक चक्कर लगाती है, उसे हमने अपनी गणना के लिए 24 घंटे में विभाजित किया है। इसी प्रकार, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर जिस अवधि में चक्कर लगाती है, उसे हमने लगभग 365 दिनों में बाँटा है। समय मनुष्य ने नहीं खोजा; यह एक प्राकृतिक घटना है जिसे हमने गणना के लिए घंटे, मिनट, सेकण्ड, दिन, सप्ताह, महीने और वर्षों में बाँटा है। अलग-अलग समाजों ने इसे अपने-अपने ढंग से विभाजित किया है और भविष्य में इसे किसी और तरीके से भी विभाजित किया जा सकता है। समय, इस तरह, एक कृत्रिम विचार है और इसे अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता।
बायनरी सोच का अर्थ है “या तो यह” या “या तो वह,” जबकि आधुनिकता में लगभग सभी अवधारणाएँ काल्पनिक या कृत्रिम विचारों पर आधारित हैं। इन्हें अंतिम सत्य मानने के परिणामस्वरूप मनुष्यों के बीच असहजता बढ़ती जा रही है। यह असहजता बायनरी सोच और अतिवाद की ओर ले जाती है, जहाँ हिंसा और प्रकृति से वैमनस्य की प्रवृत्ति जन्म लेती है।
आधुनिकता का जो संसार हमें आज अपने सामने दिखता है, वह पूरी तरह काल्पनिक या कृत्रिम है और इसे इसी रूप में देखना चाहिए। इस दृष्टिकोण से देखने पर अतिवाद की संभावना न्यूनतम होती चली जाती है, और मनुष्य की चेतना का कुछ विकास संभव होता है।
विचारों के बिना भी एक पूरा अस्तित्व है, जहाँ “होना“ प्राथमिक है, और विचार नहीं। प्रकृति में ऐसी कोई उलझन नहीं; सब कुछ सहज है। प्रकृति में लगभग सभी क्रियाएँ स्वतः होती हैं, बिना किसी विचार के। जैसे बेल को ऊपर चढ़ने के लिए सहारे का विचार नहीं करना पड़ता, मधुमक्खी अपने छत्ते के लिए कोई योजना नहीं बनाती, और पक्षी बिना विचार के अपने घोंसले बनाते हैं। प्रकृति में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जहाँ विचारों का हस्तक्षेप नहीं है, इसलिए वहाँ वैमनस्य भी नहीं है। वहाँ कोई बायनरी सोच या अतिवाद नहीं है।
मनुष्य में यह चेतना स्वाभाविक है कि वह अपने संसार का निर्माण करे। इसके लिए उसे विचार करना ही होगा, लेकिन यह सजगता होनी चाहिए कि विचार अंतिम नहीं होते; समय-समय पर इनमें परिवर्तन संभव है।
अगर हम ईमानदारी से इस ओर ध्यान दें, तो विचारों द्वारा निर्मित ढाँचे स्वतः टूटने लगेंगे और प्रकृति या ईश्वर पर अधिक विश्वास उत्पन्न होगा।
भारतीय दर्शन में दृष्टा को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यहाँ ‘खोज’ जैसा शब्द शायद इसलिए नहीं है, क्योंकि जो है उसे देखने का प्रयास रहा होगा। तपस्या और साधना द्वारा समाधि प्राप्त कर सत्य का साक्षात्कार करना, जैसी कई कथाएँ भारतीय दर्शन में मिलती हैं। सत्य के धरातल पर आधारित ज्ञान और मान्यताओं के आधार पर विचारों ने जन्म लिया होगा। यही विचार कला, आजीविका संवर्धन और समाज के व्यवहार के आधार बने होंगे। इस प्रकार की चेतना से सनातन धर्म का उदय हुआ होगा। इस प्रकार के संसार में बायनरी सोच या अतिवाद का स्थान नहीं होगा, बल्कि हर क्षण में सहजता और सद्भाव का प्रस्फुटन होता होगा।
अनिल मैखुरी
27 अक्टूबर, 2024
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