अर्थ का अनुभव और शब्द – भाग-2
पिछले सप्ताह के ब्लॉग में मैंने ‘अर्थ का अनुभव और शब्द’ पर अपने विचार साझा किए। मैं उस समय यह देख पा रहा था कि अर्थ को हम स्वयं के भीतर देखते हैं और उसको संप्रेषित करने के लिए शब्द का उपयोग करते हैं। चर्चा में यह भी आया कि स्वाभाविक रूप से अर्थ पहले आता है और शब्द बाद में। ब्लॉग को पढ़ने के बाद कुछ मित्रों ने टिप्पणी की कि कई बार वे किसी नए शब्द के माध्यम से नए चिंतन की शुरुआत करते हैं, या उनका पूर्व में चला आ रहा चिंतन अगले स्तर पर जाता है। इस दृष्टि से देखने पर ऐसा लग सकता है कि शब्द पहले आया और उससे चिंतन प्रारंभ हुआ। आइए, इसे थोड़ा और विस्तार से समझने का प्रयास करें।
अनुभूति और चिंतन
“अनुभूति” और “चिंतन” दो अलग-अलग श्रेणियाँ हैं। अभी मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि “अनुभूति” में आना अर्थात “जीवन में आना” है। शब्द जीवन में तब तक नहीं आते जब तक वे अनुभूति में नहीं उतरते। लेकिन निस्संदेह, इससे पहले वे चिंतन में आते हैं।
- “चिंतन” का अर्थ है बाहरी जगत, जिसे “संसार” भी कह सकते हैं।
- “जीवन” का अर्थ है आपका भीतरी जगत, जिसे “चेतना” कह सकते हैं।
जब मैं यह लिख रहा हूँ, तब अपनी अनुभूति के स्तर पर बहुत कुछ देख पा रहा हूँ, लेकिन बाध्यता यह है कि उसे शब्दों के माध्यम से ही संप्रेषित करना होगा—इस आशा के साथ कि ये शब्द आपके भीतर भी अनुभूति के स्तर पर उतर सकें। जब तक शब्द, पाठक की अनुभूति में नहीं आते, वे केवल विचार या चिंतन ही बने रहते हैं और हमारी चेतना के लिए उनका कोई विशेष अर्थ नहीं होता।
इसी तरह, अधिकतर लिखी या कही गई बातें हमारे लिए कोई गहरा अर्थ नहीं रखतीं, जब तक कि वे हमारे भीतर अनुभूति के रूप में प्रकट न हों। वे हमें कुछ देर के लिए प्रभावित कर सकती हैं—मनोरंजन कर सकती हैं, अच्छा या बुरा लग सकता है, हमें द्रवित कर सकती हैं, या भक्ति की भावना जगा सकती हैं—लेकिन यह सब अस्थायी होता है। जो अनुभूति में उतरेगा, वही हमारे भीतर ठहरेगा।
शब्दों का प्रभाव और उनका स्थान
पिछले ब्लॉग में चर्चा की थी—पहले अनुभव होगा, फिर शब्द आएंगे। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। यही वह तरीका है, जिससे बच्चों की सीखने की प्रक्रिया होनी चाहिए। अब, जब हम शब्दों के संसार में जीने लगे हैं, तो अनुभव को देखना लगभग समाप्त हो चुका है। इस समयकाल में शब्दों की हमारे जीवन में क्या भूमिका दिखती है, इसे देखने का थोड़ा प्रयास करते हैं।
अपना उदाहरण देता हूँ। मैं सरकारी परियोजनाओं से जुड़ा रहा हूँ। वहाँ एक शब्द बहुत सुनता था—‘संरक्षण’। जल संरक्षण, वन संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति संरक्षण आदि। इसका अर्थ जल, वन, पर्यावरण, प्रकृति आदि का बचाव और सुरक्षा करना है। यह उचित ही है और इसके लिए कई परियोजनाएँ बनती हैं, बजट आता है आदि। जब तक मैं इस शब्द को अपनी अनुभूति पर नहीं लाया, तब तक ये सभी अकादमिक अर्थ सही लगते थे। यही अर्थ सभी को सही लगते हैं। पूरा संसार इस शब्द पर खड़ा है। लेकिन यह सब कुछ कृत्रिम सा लगता है। इन परियोजनाओं से जुड़े तमाम अधिकारियों या कार्यकर्ताओं में जल, वन, वन्य जीव या प्रकृति के प्रति कोई विशेष संवेदना नहीं दिखती। एक-दो अपवाद हो सकते हैं। ईमानदारी से कहूँ तो मैं भी सिर्फ काम कर रहा था, कोई संवेदना मुझमें भी नहीं थी।
मेरी दो बेटियाँ हैं, उनके प्रति मुझमें स्वाभाविक संवेदना है, जो एक सामान्य बात है। मैं उनके संरक्षण के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता हूँ। जब मैं उनके साथ, उनके ‘संरक्षण’ के लिए कुछ करता हूँ तो यह नारायण मूर्ति जी के 9-10 घंटे वाले काम का हिस्सा यानी नौकरी नहीं होता। शब्द वही है—‘संरक्षण’, लेकिन यहाँ मैं उसके अर्थ को स्वयं अनुभव कर पा रहा हूँ। परियोजनाओं में यह मात्र नौकरी से सम्बंधित होता है, जो अर्थ सुना है उसी से काम चलता है, अपने भीतर कुछ विशेष होता नहीं है।
मैं देख रहा था कि परियोजनाओं में ‘संरक्षण’ शब्द उस विचार श्रृंखला से आता है, जहाँ मानव सर्वोपरि है। उसे ही सब कुछ करना है, यानी सब कुछ पर नियंत्रण रखना है। प्रकृति का संरक्षण और उस पर नियंत्रण भी उसे ही करना है। जबकि मेरा स्वयं का अनुभव यह है कि प्रकृति के भीतर मैं संरक्षित हूँ और मेरी तरह संपूर्ण जीवन-जगत संरक्षित है। ‘मेरा होना’ भी प्रकृति द्वारा ही नियंत्रित है। इससे कृतज्ञता का भाव भी आता है। तो फिर मैं कौन हूँ जो प्रकृति या पर्यावरण का संरक्षण करूँ? अतः मेरे अनुभव में यह आ ही नहीं पाता।
सभ्यता और विचारधारा में शब्दों की भूमिका
शब्द, एक संपूर्ण सभ्यतागत विचार श्रृंखला के प्रतिनिधि भी होते हैं। सरकारी परियोजनाओं के संदर्भ में ‘संरक्षण’ एक विशेष विचारधारा का प्रतिनिधि शब्द है। यह भी स्पष्ट होने लगा। जैसे, ‘फ्रीडम’ शब्द का जो अर्थ पश्चिमी सभ्यता में है, वह ‘स्वतंत्रता’ का अर्थ भारतीय सभ्यता में नहीं है। यहाँ ‘स्वतंत्रता’ का अर्थ कहीं अधिक व्यापक और गहन है। इसी प्रकार अनेक अन्य शब्द हैं—धर्म, प्रकृति, पुरुष, सद्भाव, श्रद्धा, आस्था, शिक्षा, विद्या आदि, जिनका अनुवाद अंग्रेज़ी में किया जा सकता है, लेकिन उनके अर्थों का अनुवाद संभव नहीं है।
दूसरों के संसार में जीने की बाध्यता
हमारे शब्दों से बना हमारा एक संसार है, जहाँ समस्त शब्दों का उद्भव हमारे अनुभवों से होता होगा। उसी प्रकार दूसरों का अपना संसार है। लेकिन आज हम शब्दों के एक तरह के जंजाल में फंसकर दूसरों के संसार में जीने के लिए बाध्य हो गए हैं। हम शब्दों का उपयोग तो कर रहे हैं, लेकिन उनके अर्थों को स्वयं के भीतर अनुभव नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप सब कुछ ऊपरी या बाहरी स्तर पर है, दिखावटी है। अनुभूति के स्तर पर यह हमारा नहीं है, क्योंकि ये हमारे अपने शब्द नहीं हैं, हमारा अपना संसार नहीं है।
दूसरों के संसार में रहने की इस बाध्यता के कारण हमारी मौलिक बौद्धिक क्षमता का ह्रास होना अवश्यम्भावी है। इसलिए यहाँ भटकाव है, और हम यहाँ नकल करने के लिए, दूसरों के जैसा दिखने के लिए अभिशप्त हैं। मैं यहाँ दुसरे की बात नहीं कर रहा हूँ, आपकी बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तो रोज, स्वयं में यह देखता हूँ और इसके साथ जीता हूँ।
नए प्रयोग की आवश्यकता
हमें एक ऐसे स्थान या संस्थान के बारे में सोचना चाहिए, जहाँ हम विभिन्न शब्दों के अर्थ को अनुभूति के स्तर पर अपने भीतर देख सकें, या अपनी अनुभूति को संचारित करने के लिए कुछ नए शब्द दे सकें। हमारे आसपास कुछ ऐसे कार्यक्रमों का संचालन हो जहाँ हो रहे अनुभव को हम स्वयं के भीतर देख सकें। उन अनुभवों और उनसे जुड़े प्रत्येक शब्द के साथ कुछ दिन रहा जाये, उन्हें अपने भीतर प्रवेश कर जाने दें।
इस संस्थान में विचारों का जमावड़ा नहीं होगा बल्कि अनुभव से सत्य की ओर जाने का मार्ग प्रसस्त होगा। आधुनिक ‘विचारों’ और ‘अवधारणाओं’ ने लोगों को बहुत भ्रम में रखा है, क्योंकि हमारे लिए यह केवल शब्दों के स्तर पर होते हैं। जीवन में अनुभूति के स्तर पर कुछ नहीं दिखता।
इस संस्थान में एक संपूर्ण इकोसिस्टम हो, जहाँ आपके भीतर ‘अर्थ’ घटित हो सके। हमारी शिक्षा ने हमें शब्दों के पहले से निर्धारित अर्थों को रटने के लिए प्रशिक्षित किया है। इस संस्थान में स्वयं को इस प्रक्रिया से अप्रशिक्षित करने की संभावनाएँ भी खोजी जा सकती हैं। यहाँ कुछ लोग मिलकर अपने मूल भारतीय मानस को प्राप्त करने की तपस्या करें जिससे अस्तित्व में मौजूद सनातन सत्य उनके सम्मुख उद्घाटित हो सकें।
अनिल मैखुरी
07 फरवरी, 2025
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