युद्धभूमि और विश्वशनीय समझ
कुछ दिनों पूर्व हम एक बहुत ज्ञानी आचार्य जी के साथ गीता का अध्ययन कर रहे थे। अध्ययन के पहले दिन आचार्य जी ने यह प्रश्न उठाया कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को (या पूरे विश्व को) गीता का ज्ञान देने के लिए महाभारत की युद्धभूमि को ही क्यों चुना? यदि इसे प्रतीकात्मक रूप में देखा जाए, तब भी यह प्रश्न वाजिब है कि गीता जैसे महान ज्ञान को युद्धभूमि की पृष्ठभूमि में ही क्यों प्रस्तुत किया गया?
इस प्रश्न के कई उत्तर दिए जा सकते हैं — और दिए भी गए हैं। जैसे कि: यही वह स्थान था जहाँ अर्जुन ने प्रत्यक्ष देखा कि वास्तव में उसे युद्ध किससे करना है, और यह देखकर अर्जुन अपने सबसे कठिन धर्म-संकट का सामना कर रहे थे, जहाँ उन्हें अपने सगे-संबंधियों और मित्रों के खिलाफ लड़ना था। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन को इस धर्मसंकट से निकालने के लिए गीता का ज्ञान दिया। यह उत्तर उचित है, सटीक भी हो सकता है। यह परिस्थिति जीवन के वास्तविक संघर्षों और चुनौतियों का प्रतीक है, जहाँ हमें अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना होता है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।
इसके अतिरिक्त, कई और उत्तर भी दिए जा सकते हैं, जैसे:
- युद्ध क्षेत्र जीवन का प्रतीक है, जहाँ हमें अपने निर्णयों का सामना करना पड़ता है, और जहाँ आंतरिक तथा बाह्य संघर्ष निरंतर चलते रहते हैं। इसलिए यही वह उपयुक्त समय था जब गीता का ज्ञान दिया जा सकता था।
- अर्जुन का मोह और निराशा उस समय चरम पर थी, जो उन्हें उनके सच्चे स्वभाव और आत्मबोध से दूर कर रही थी। यही वह क्षण था जब कृष्ण ने उन्हें उनके असली स्वरूप का बोध कराया।
- युद्धभूमि पर हर क्षण परिवर्तनशील है, और ऐसे समय में कृष्ण ने अर्जुन को समत्व योग, निष्काम कर्म, और आत्मस्वरूप का ज्ञान दिया, जो किसी भी स्थिति में शांत और स्थिर बने रहने की प्रेरणा देता है।
ये सभी उत्तर महत्वपूर्ण हैं और जीवन के कठिन समय में हमें विवेक का बोध कराते हैं — विवेक अर्थात नित्य और अनित्य का भेद, सत्य और असत्य का भेद, वास्तविकता और अवास्तविकता का भेद।
जब आचार्य जी हमें ये उत्तर समझा रहे थे, उसी समय मेरे भीतर एक और उत्तर प्रस्फुटित हुआ, जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ और जिसे मैं अपने जीवन के कई अन्य अनुभवों से भी जोड़ पाया। मुझे यह प्रतीत हुआ कि हमें ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब हम वास्तव में ‘युद्धभूमि’ — जिसे ‘कर्मभूमि’ भी कहा जा सकता है — में उपस्थित होते हैं। कर्मभूमि के अतिरिक्त, कहीं और प्राप्त ज्ञान हमारी स्मृति में तो रह सकता है, लेकिन वह हमारे होने का हिस्सा नहीं बन पाता। जब तक ज्ञान को अनुभव की कसौटी पर नहीं परखा जाता, तब तक वह केवल एक विचार है, केवल बुद्धि का विषय है। ज्ञान का लाभ तभी है जब वह अनुभव के माध्यम से हमारे होने में रूपांतरित हो जाए। युद्धभूमि या कर्मभूमि में जो भी अनुभव होता है, वह हमारे होने का हिस्सा बन जाता है।
मेरे कई वरिष्ठ मित्र हैं, जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। वे मेरे लिए गुरु के समान हैं। मैंने देखा है कि उनकी सबसे विश्वसनीय समझ वही है, जो उन्होंने सीधे कर्मभूमि से अर्जित की है। उन्होंने बहुत कुछ पढ़ा होगा, बहुत कुछ सुना और देखा भी होगा, लेकिन यह सब कुछ उनके होने का या उनकी विश्वसनीय समझ का हिस्सा नहीं बन पाया। उनकी बात सबको प्रेरित करती जो उन्होंने अपनी युद्धभूमि या कर्मभूमि से प्राप्त की है।
विश्वसनीय समझ (Authentic Wisdom) हमें केवल कर्मभूमि में ही प्राप्त होती है। संसार का कोई शास्त्र या गुरु हमें वह समझ नहीं दे सकता, जो हमें हमारे स्वयं के अनुभव से प्राप्त होती है। शास्त्र या गुरु से हमें ज्ञान मिल सकता है, लेकिन वह ज्ञान हमें तभी दिखेगा जब वह हमारे अनुभव का हिस्सा बनेगा। और अनुभव केवल कर्मभूमि से ही प्राप्त हो सकता है।
पढ़ना-लिखना, चर्चाएँ करना आदि सभी कुछ ठीक है, लेकिन यदि हम वास्तव में ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो वह हमें अपने सीधे अनुभवों से ही प्राप्त होगा। अतः हम सभी को कर्मों की ओर प्रवृत्त होना होगा। गीता के कर्मयोग अध्याय के 9वें श्लोक में भगवान कृष्ण ने कहा है कि वास्तव में कर्म वही है, जो यज्ञ के भाव से किया जाए — इसके अतिरिक्त सभी कर्म मनुष्य को कर्मबंधन में डालते हैं। यज्ञ का भाव भक्ति से उत्पन्न होता है, और भक्ति भाव से किया गया कोई भी कर्म सेवा के रूप में प्रस्तुत होता है। भक्ति और सेवा के बारे में अपने पिछले ब्लॉग में संछिप्त में लिखा है।
अनिल मैखुरी
11 मई, 2025
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