विविधता – परंपरा में/ आधुनिकता में (Part 2)

Note: This is part 2 of an article written by Pawan Gupta for Madhumati, a journal published from Bikaner, Rajasthan

वास्तविक्ता को दो पहलुओं में देखा समझा जाता है, ये एक दूसरे से कुछ उसी तरह जुड़े होते हैं, जैसे सिक्के के दो पहलू। एक पहलू अदृश्य, निराकार या इंद्रिय निरपेक्ष – ‘होने’ वाला या ‘है’ वाला – और दूसरा इंद्रिय सापेक्ष – ‘करने’ और ‘दिखने’/’दिखाने’ या ‘लगने’ वाला पहलू। इसे ‘स्थिति’ और ‘गति’ का नाम भी दिया जा सकता है। हरेक वास्तविक्ता का अर्थ समझना पड़ता है, उसका अनुभव करना होता है। शिक्षा का यही उद्देश्य है। यहाँ वास्तविकता से सिर्फ भौतिक वास्तविकताओं से तात्पर्य नहीं है वरन उन वास्तविक्ताओं से भी है, जो निराकार और इंद्रिय निरपेक्ष होती हैं। उदाहरण के लिए सम्मान, विश्वास, करुणा, प्रेम, क्रोध, भय, लोभ, मोह इत्यादि का भाव या स्वतन्त्रता, स्वराज, जो अगोचर होते हुए भी, जिनकी वास्तविकता है। भले ही वास्तविकता का अर्थ समझा जाय या न जाय, उसे सही समझा जाय या गलत, उसका अनुभव हो या न हो, वास्ताविक्ता को उससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क समझने/ न समझने वाले को पड़ता है। वास्तविक्ता तो बस है। वास्तविक्ताओं का अर्थ, उसका अगोचर पहलू है। वास्तविक्ता है; अर्थ है; शब्द या नामकरण, किया जाता है – उसे बोला, लिखा, सुना और पढ़ा जाता है। एक ही अर्थ के अलग अलग भाषा-बोलियों में अलग अलग शब्द होते हैं। एक ही भाषा में भी एक से अधिक शब्द हो सकते हैं। इस प्रकार अर्थ, भाषातीत होते हैं और शब्द, भाषा में होते हैं। अर्थ एक, और शब्दों की/में विविधता होती है। इस विविधता में सौंदर्य है। साथ ही अलग अलग (पर्यायवाची) शब्द, अर्थ की अनेकांगी विशेषताओं को उजागर करते हैं। उनकी अपनी विशेषता होती है। यहीं सौंदर्य है, भाषा का सौंदर्य। साथ ही शब्दों का इस्तेमाल जब सिर्फ दिखावे के लिए होने लगता है तो उसमें विकृति और भौंडापन आता है।

जीवन दृष्टि, सिद्धान्त, शाश्वत नियम, शाश्वत सत्य, इत्यादि भी, अर्थ जैसे ही, अगोचर होते हैं – ‘स्थिति’ की कोटि में आते हैं। ये हैं और इन्हे समझना पड़ता है, अनुभव (करना) होता है । यह ‘होने’ या ‘है’ वाला संसार है। ‘करने’ या/और दिखने वाला संसार, प्रत्यक्ष/व्यक्त संसार, इस ‘है’ वाले संसार पर आधारित हो सकता है और भ्रम या असत्य पर भी हो सकता है। जैसे सम्मान के भाव (स्थिति) को, अनेक प्रकार से, समय और स्थान को ध्यान में रख कर, अभिव्यक्त किया (गति) जा सकता है। विविधता इसी करने और दिखने वाले संसार में होती है। जब यह करने वाला संसार सत्य (शाश्वत) की बुनियाद पर खड़ा होता है तो गति (अभिव्यक्ति) में सहजता होती है, यह नैसर्गिक होता है, प्राकृतिक होता है। यही इसका सौंदर्य है। यह मनुष्य के अंदर ऊर्ध्वगामी भावों को प्रोत्साहित करते हैं। स्थिति और गति में लय, सामंजस्य सहजता को जन्म देते हैं। यही असली और गहरी ईमानदारी (authenticity) है।

इसके विपरीत, असत्य या भ्रम पर आधारित दिखने/करने वाला संसार अपने आप में भ्रम फैलाने और बढ़ाने का काम ही कर सकता है इसलिए वैसी विविधता का कोई अर्थ नहीं, वह कृत्रिम, भ्रामक और बदसूरत होती है जो मनुष्य में ईर्ष्या, द्वेष, होड़, इत्यादि विकारों को प्रोत्साहित करती हैं। जैसे सम्मान का प्रदर्शन (गति), सहज रूप से, सम्मान के भाव (स्थिति) से निकले ज़रूरी नहीं। सम्मान का (गति में) दिखावा भी हो सकता है जिसका उसके भाव से या स्थिति से कोई लेना देना नहीं। यह गति कृत्रिम, बे-मानी और धोखा देने वाली होती है। इसकी बुनियाद (सम्मान के) भाव से नियंत्रित नहीं। इस प्रदर्शन या गति में विविधता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यहाँ प्रदर्शन खोखला है, बगैर धुरी के। आधुनिकता में स्थिति की अनदेखी करते हुए इसी प्रकार की गति को प्रोत्साहित किया जा रहा है और उसे विविधता कहा जा रहा। इस विविधतता ने ‘नयेपन’ की बीमारी को जन्म दिया है। यहाँ ‘नये’ को मौलिकता मान लिया गया है। पर मौलिकता तो मूल (धुरी) से जुड़े हुए बगैर हो ही नहीं सकती।
     
आज की आधुनिकता की बुनियाद शाश्वत सत्य पर नहीं खड़ी है। इतना ही नहीं आज की आधुनिकता में तो सत्य की शाश्वतता को ही नकार दिया गया है। “सब का अपना अपना सत्य होता है” को शाश्वत सत्य की तरह स्थापित कर दिया गया है। सब की अपनी अपनी पसंद/ना-पसंद होती है; सबका अपना अपना विचार होता है; सबकी अपनी अपनी कल्पना होती है। पर सत्य? वह कैसे “अपना”, व्यक्तिगत हो सकता है। अगर सत्य है, तो वह तो सार्वजनिन और सार्वकालिक ही होगा। पर आधुनिकता ने अपने प्रचार के बल पर एक असत्य को सत्य पर आरोपित कर दिया है।

(The article appears over three weeks on this blog. This is the end of part 2)