‘आगे बढ़ना’ क्या है?
मैंने 19 वर्षों तक मुख्यधारा की परियोजनाओं में काम किया। दिन-भर की व्यस्तता, अनगिनत ईमेल, फोन कॉल और असंख्य चर्चाएँ… लेकिन यह सब किस लिए? मैं खुद से पूछता था – क्या मैं सही दिशा में आगे बढ़ रहा हूँ? क्या यह व्यस्तता सार्थक है?
मेरे मित्र ‘आगे बढ़ने’ के विचार से प्रेरित थे। शुरुआत में यह विचार मुझे भी उत्साहित करता था, और मैं तथाकथित रूप से ‘आगे बढ़ा’ भी। लेकिन फिर महसूस हुआ कि यह होड़ अंतहीन है। और आगे कहाँ बढ़ना यह किसी को भी निश्चित नहीं है। यह केवल मेरी नहीं, संपूर्ण मानवता की प्रवृत्ति है – हमेशा कुछ और पाने या कुछ और बनने की चाह। ‘मैं यह हूँ, लेकिन मुझे वह बनना है। मेरे पास यह है, लेकिन मुझे वह चाहिए।’ हमने इसे ‘विकास’ और ‘प्रगति’ का नाम दिया है, लेकिन क्या यह मानव की मूल प्रकृति है?
क्या मनुष्य का मनोविज्ञान ही ऐसा है कि वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता? या हम भटक गये हैं या किसी बेहोशी/नशे में हैं?
अगर हम पूरे समाज को एक इकाई मानें, तो यह प्रश्न और गहरा हो जाता है – हम अंततः पहुँचना कहाँ चाहते हैं? क्या हमें कभी पूर्णता का अहसास होगा, या यह अनंत यात्रा यूँ ही चलती रहेगी? हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति ने यूरोप के देशों को चेतावनी दी कि उन्हें अपने रक्षा बजट को 2% से बढ़ाकर 5% तक करना होगा। इसका अर्थ है कि हम अधिक युद्ध और अशांति की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन इसी के साथ वे अगले ही पल दुनिया में शांति की भी बात करने लगते हैं! यह विरोधाभास केवल वैश्विक राजनीति तक सीमित नहीं है – हमारे व्यक्तिगत जीवन में भी इस प्रकार के द्वंद्व हैं। हमें शांति चाहिए, लेकिन पैसा भी। हमें गहरे रिश्ते चाहिए, लेकिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी।
हम सब समृद्ध होना चाहते हैं। इसके लिए हम अथक परिश्रम करते हैं, संघर्ष करते हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि समृद्ध होकर करेंगे क्या? जिन लोगों ने तथाकथित समृद्धि प्राप्त कर ली, क्या वे अब संतुष्ट हैं? नहीं, वे भी किसी नई दौड़ में लगे हुए हैं। हम सबके दिमाग में समृद्धि की एक काल्पनिक छवि बनी हुई है, और हम उसे पाने के लिए संघर्षरत हैं। परंतु जो लोग इस छवि के अनुसार समृद्ध दिखते हैं, वे भी और अधिक पाने की दौड़ में व्यस्त हैं।
क्या यह समृद्धि वास्तविक है, या केवल एक भ्रम?
हमारे भीतर हमेशा भविष्य की एक धुंधली छवि होती है। भौतिक रूप से यह कुछ हद तक स्पष्ट भी होती है – पहले हम पैदल चलते थे, फिर बैलगाड़ी बनी, फिर गाड़ियाँ, हवाई जहाज, और अब बुलेट ट्रेन और स्पेस ट्रैवल। लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से हम कहाँ जा रहे हैं?
हम मानते हैं कि नई सुविधाएँ हमें संतोष देंगी, लेकिन हर नई उपलब्धि के बाद हम और अधिक की तलाश में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे अस्तित्व पर भारी पड़ रही है। हमारी यह अनियंत्रित महत्वाकांक्षा पर्यावरण, समाज और व्यक्तिगत जीवन में तनाव, अशांति और असंतोष का कारण बन गई है।
अब यदि हम प्रकृति को देखें, तो वहाँ कोई ‘कुछ और बनने’ की चाह नहीं दिखती। बीज सहज रूप से अंकुरित होता है, वृक्ष बनता है, फल-फूल देता है। चिड़िया अपने घोंसले सदियों से एक ही तरह से बना रही है। मधुमक्खियाँ अपने जटिल छत्ते में कोई बदलाव नहीं लातीं। प्रकृति में कहीं भी ‘कुछ और बनने’ की इच्छा नहीं है, वहाँ ‘विकास’ या ‘प्रगति’ की कोई अवधारणा नहीं है। और इसके बावजूद वे अपनी पूर्णता में विद्यमान हैं। अगर मनुष्य हस्तक्षेप ना करे तो वे अपनी एक सतत व्यवस्था में स्थिर हैं, फिर भी उनमें अपार ऊर्जा है।
तो मनुष्य ही क्यों इस अंतहीन दौड़ में फंसा हुआ है?
हम जैसे हैं और जैसा हम सोचते हैं, उसमें शायद बहुत भेद आ गया है। हमारे विचार प्राकृतिक नहीं हैं, वे हमारी बौद्धिकता द्वारा निर्मित हैं। बौद्धिकता की एक सीमा है, जिसे हम पहचान नहीं पा रहे हैं। हम यह मानते हैं कि हमें सभी कुछ समझ में आ रहा है और इसलिए हमें सभी कुछ पता होना चाहिए। ताकि वह हमारे नियंत्रण में रहे। लेकिन प्रकृति का एक संसार ऐसा भी है जो मनुष्य की बौद्धिकता से परे है, वहाँ हमारे द्वारा देखा या बनाया गया कोई भी सिद्धान्त कार्य नहीं करता। वह सभी कुछ हमसे परे हैं। और हमारा होना उसके अन्तर्गत है।
‘आगे बढ़ना’ या ‘हमेशा कुछ और हो जाने की चाह’ महज़ एक मानसिक लत है। इसमें हम बिना वजह हर समय व्यस्त रहना और दिखना चाहते हैं, अपने आप को किसी गतिविधि में उलझाए रखना चाहते हैं। यह सहज नहीं है, असहज है। दुर्भाग्य से अब यह असहजता ही हमारा सामान्य जीवन बन गई है।
मैं यहाँ आलस्य या निष्क्रियता की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि एक ऐसे जीवन की कल्पना कर रहा हूँ जो सहजता से बहता चला जाए – जहाँ ‘काम’ कोई बोझ न हो, बल्कि जीवन का एक सहज प्रवाह हो। ऐसा जीवन जहाँ हम ‘आगे बढ़ने’ के भ्रम से मुक्त होकर, जो कुछ भी है, उसे पूर्ण रूप से देखने और स्वीकार करने की क्षमता विकसित करें।
शायद, हमें ‘कुछ और’ बनने की नहीं, बल्कि ‘जो हैं’ उसे देखने, समझने और उसमें जीने की ज़रूरत है। प्रकृति, इसमें हमारी सहायक हो सकती है अगर हम अपनी बौद्धिकता को त्याग कर उसके सम्मुख सम्पूर्णता से नतमस्तक हो सकें तो।
अनिल मैखुरी
‘सिद्ध’ देहरादून
22 फरवरी, 2025
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