साहस के साथ स्वयं को स्वीकार कीजिए
हाल ही में मुझे ‘कृष्णमूर्ति फाउंडेशन इंडिया’ द्वारा वाराणसी के राजघाट में 9 से 12 नवंबर, 2024 को आयोजित ‘KFI Annual Gathering-2024’ में भाग लेने का अवसर मिला। इससे कुछ ही दिन पहले, मैं वाराणसी में सिद्ध द्वारा आयोजित ‘संगीत संवाद’ के सिलसिले में वहां गया था। मात्र 20 दिनों के अंतराल में इस आयोजन में जाने का निर्णय मैंने अपनी जिज्ञासाओं के चलते लिया। पिछले कुछ वर्षों में, मैंने लगातार जे. कृष्णमूर्ति जी को सुना है और निःसंदेह कह सकता हूँ कि उन्होंने मेरे देखने-समझने के तरीके को गहराई से प्रभावित किया है। आज, मैं जिन चीजों को जिस दृष्टिकोण से देख पाता हूँ, उसमें उनकी कही बातों का बड़ा योगदान है। इसी वजह से, मेरे भीतर यह जिज्ञासा थी कि मैं उन लोगों से मिलूं जिन्होंने अपने जीवन को उनके विचारों और कार्यों को आगे बढ़ाने में समर्पित किया है और जो उन्हें गहराई से समझते हैं। इसके साथ ही, मैं राजघाट के उस अद्भुत वातावरण का अनुभव करने का भी इच्छुक था।
भव्य और सुव्यवस्थित आयोजन था। 300 से अधिक लोगों की उपस्थिति के बावजूद कहीं कोई अव्यवस्था या हड़बड़ाहट नहीं दिखी। सब कुछ सहजता और शांति के साथ संपन्न हुआ। भोजन भी शानदार रहा। सत्र की शुरुआत कृष्णमूर्ति स्कूल के शिक्षकों द्वारा मधुर संगीत प्रस्तुति से होती थी, जिसके बाद संवाद और चर्चाएं आयोजित होती थीं। छोटे समूहों में भी गहन चर्चा हुई। इसके अतिरिक्त, ‘कृष्णमूर्ति फाउंडेशन इंडिया’ ने अपनी गतिविधियों और भारत में संचालित छह स्कूलों के बारे में जानकारी साझा की। इन स्कूलों में शिक्षा के अनूठे तरीके पर एक चर्चा भी आयोजित की गई। 12 नवंबर की संध्या, संगीत के रंग में रंगी रही। इसमें सुश्री सुप्रिया शाह जी ने सितार और पंडित ऋत्विक सन्याल जी ने ध्रुपद गायन की प्रस्तुति दी, जो अविस्मरणीय रही। संस्थान के परिसर में व आसपास के दृश्यों का आनंद लेने के लिए भी पर्याप्त समय था।
इन चार दिनों में एक सवाल बार-बार मेरे भीतर उठता रहा: कृष्णमूर्ति जी ने अपनी बातें रिकॉर्ड होने की अनुमति क्यों दी होगी? यही सवाल तब भी मेरे मन में आता है, जब मैं पिछले 25 वर्षों से विपश्यना में गोयनका जी के दिए गए संवाद सुनता हूँ। महापुरुषों की बातों को रिकॉर्ड करना, फिर उन्हें स्मृति में ज्यों का त्यों संग्रहीत कर लेना, और उसे अंतिम सत्य मान लेना—क्या यह वास्तव में हमारे बौद्धिक विकास में सहायक होता है? या यह हमारे विकास को कहीं रोक देता है? क्या ऐसा करने से उनके अनुयायी, जो अपनी समझ और दृष्टिकोण से सत्य को स्वम् भी देख सकते थे, एक निश्चित प्रारूप में खुद को सीमित कर नहीं लेते? यह सवाल मेरे लिए गहन और विचारणीय है।
रमण महर्षि, ओशो, रामकृष्ण परमहंस, अरविंदो, महात्मा गांधी आदि ने हमारी बौद्धिक चेतना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ये सभी साधारण मनुष्य ही थे, लेकिन जो चीज़ इन्हें विशेष बनाती है, वह उनका मौलिक चिंतन है। ये अपने अनुभवों के प्रति सतर्क रहे और अपने भीतर सत्य को देखने में सक्षम हुए। इनमें से कई ने अन्य महापुरुषों को पढ़ा होगा। कुछ ने वेद, उपनिषद, सनातन साहित्य और पश्चिमी साहित्य का भी अध्ययन किया होगा। उनके भीतर इन ग्रंथों की कुछ बातें आत्मसात हुईं और उनके मौलिक चिंतन का हिस्सा बन गईं। यही मौलिकता उन्हें और उनकी शिक्षाओं को अद्वितीय बनाती है। इस मजबूती के बल पर, उन्हें अपने स्तर पर सत्य के दर्शन हुए। सत्य तो एक ही है उस तक पहुंचने की सबकी यात्रायें अपनी-अपनी होती होंगी। इन सभी महापुरुषों को जो सत्य दिखा उसे हम तक पहुँचाने के लिए इन्होंने कुछ कहने या लिखने का प्रयास किया ताकि हम अपने अनुभवों के साथ उसे जोड़कर देख सकें और स्वयं को सशक्त बना सकें। लेकिन सवाल यह है: क्या इस प्रक्रिया में हम वास्तव में सशक्त होते हैं, या फिर दूसरों के विचारों को केवल मानने भर से हम कहीं अधिक कमजोर और दिखावटी बन जाते हैं?
स्वयं में सशक्त होना अत्यधिक परिश्रम और साहस की मांग करता है, और शायद यह हर किसी के बस की बात नहीं है। इसमें गहरी असुरक्षा भी होती है, क्योंकि यह यात्रा अकेले करनी पड़ती है। हमें अपने भीतर अनुसंधान करना होता है और सत्य को खोजना होता है। यही कारण है कि हम अक्सर सरल मार्ग चुनते हैं—किसी एक नाम या विचार को पकड़ लेते हैं और उसे अंतिम सत्य मान लेते हैं।
समस्या यह है कि हम वास्तव में जानते कुछ नहीं हैं, बस मान लेते हैं। यह हमें कमजोर बना देता है। असुरक्षा के डर से जो हम पकड़ लेते हैं, उसे जीवन भर छोड़ना कठिन हो जाता है। भले ही जिसे हमने पकड़ा हो, वह स्वयं कहे कि “मुझे छोड़ो, मैंने केवल दिशा का संकेत दिया है, आगे तुम्हें अपना रास्ता खुद बनाना होगा,” फिर भी हम उसे ही पकड़े रहते हैं। क्योंकि उससे अलग हमारा अपना कोई अस्तित्व ही नहीं बन पाया होता। हमारा मौलिक चिंतन कभी विकसित ही नहीं हुआ।
कृष्णमूर्ति ने बार-बार इस ओर ध्यान दिलाया कि कोई भी ज्ञान, जो स्मृति का रूप ले लेता है, वह मृतप्राय हो जाता है। ऐसा ज्ञान उपयोगी नहीं रहता। उन्होंने ज्ञान को पूरी तरह नकारा और हमेशा आत्म-अन्वेषण और स्वयं के बौद्धिक विकास पर जोर दिया। उनका यह दृष्टिकोण हमें अपनी मौलिकता की ओर लौटने की प्रेरणा देता है, लेकिन इसके लिए साहस और असुरक्षा का सामना करने की क्षमता चाहिए। क्या हम इस चुनौती को स्वीकार कर सकते हैं? यही प्रश्न हमारे सशक्त होने की कुंजी है।
आधुनिक संसार में स्मृति के माध्यम से अर्जित ज्ञान को ही सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यहाँ मौलिकता का विशेष महत्व नहीं है। जैसा सिखाया या पढ़ाया गया है, वैसा ही करना अपेक्षित है। इस मानसिकता के चलते प्रबंधन या प्रशासन जैसे कार्य प्रायः ठीक ढंग से संपन्न हो जाते हैं। एक प्रकार का डरा-सहमा सा अनुशासन बना रहता है, जो भौतिक विकास के लिए आवश्यक भी माना जाता है। यह दृष्टिकोण राष्ट्रों, बड़ी कंपनियों, तथाकथित विश्वविद्यालयों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समाजसेवी संस्थानों और प्रबंधन संस्थानों आदि के लिए उपयोगी साबित होता है। यहाँ के जैसे भी संविधान, नियम-कानून आदि बन गए हैं, वैसे ही उनका पालन करते रहना सफलता की कसौटी मानी जाती है। यहाँ मौलिकता की ना तो किसी को कोई अपेक्षा है और ना ही इसके लिए कोई वातावरण या प्रोत्साहन है।
कृष्णमूर्ति फाउंडेशन जैसे संस्थानों में तो मौलिकता को एक धर्म की तरह होना चाहिए। चार दिनों के एक छोटे से समयअन्तराल में मैंने अनुभव किया जैसे वहाँ पिछले 38 वर्षों से सब कुछ जैसे थम सा गया है। उद्बोधन भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। सिर्फ प्रो. समदोंग रिनपोछे जी के प्रवचन में फिर भी उनके अनुभव सुनाई दिए जिसका आधार उन्होंने कृष्णमूर्ति जी से ही लिया था। बाकि कोई अपनी बात नहीं कहता, अपने अनुभव साझा नहीं करता। केवल यह कहा जाता है कि कृष्णमूर्ति ने यह कहा है या वह कहा है। लेकिन आप भी कुछ कहिए! आपका भी एक जीवन रहा है, आपकी अपनी समझ, आपके अनुभव रहे होंगे। उनके बारे में बात कीजिए। परंतु नहीं—यह निष्ठा का ऐसा रूप है कि जो उससे जुड़ चुके हैं, वे उससे अलग कुछ सोचने को तैयार ही नहीं। यह एक प्रकार की जड़ता बन चुकी है।
इस तरह के भक्त लोग कुछ संस्थाएँ तो बना लेते हैं, प्रबंधन वगैरह का काम भी संभाल लेते हैं, लेकिन इससे कोई व्यापक बदलाव कभी नहीं आ सकते। ना खुद उनमें और ना व्यापक समाज में। आपने मान लिया कि यही सब कुछ है, इस तरह आपने अपने आगे बढ़ने के मार्ग को तो अवरूद्ध कर ही दिया साथ ही आपने समाज के एक तपके जिसका इस संस्थान के माध्यम से जो बौद्धिक विकास हो सकता था उसे भी सीमित कर दिया। आप जो सिर्फ माने हुए हैं, उसी का प्रचार कर रहे वास्तविक जानने की प्रक्रिया आपके साथ घटित ही नहीं हो पाई।
कृष्णमूर्ति बार-बार कहते थे कि ज्ञान को अपनी स्मृति बनाकर उसे स्थिर मत करो। उसे अपने अनुभवों से विकसित होने दो, उसे प्रस्फुटित होने दो। यही बौद्धिक विकास है, जिसे वे इंटेलेक्ट कहते थे।
समृद्ध परिवार के सभी सदस्यों को अपनी पैतृक संपत्ति मिलने पर बेहद खुशी होती है, क्योंकि इसके लिए स्वम् उन्होंने कभी कुछ नहीं किया होता। यह तो उनके पूर्वजों के परिश्रम या उस समय की परिस्थितियों का परिणाम होता है, जो उन्हें सहज ही मिल जाता है। कुछ परिवार के सदस्य इसी संपत्ति से ही अपना जीवन यापन कर लेते हैं, लेकिन कुछ सदस्य इसे अपने आधार के रूप में स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं और फिर कुछ नया अर्जित करते हैं जो आने वाली पीढ़ियों या पूरे समाज के लिए उपयोगी होता है।
कृष्णमूर्ति जैसे महान व्यक्ति भारत रूपी समृद्ध परिवार के उन सदस्यों में से हैं, जिन्होंने मिली हुई बौद्धिक संपत्ति को आधार बनाकर हम सभी के लिए बहुत कुछ अर्जित किया। मैं अपने चार दिनों में ऐसे कई लोगों से मिला, जो कृष्णमूर्ति द्वारा अर्जित की गई बौद्धिक संपत्ति से ही संतुष्ट हैं, और उनसे आगे बढ़ने की कोई विशेष इच्छा नहीं रखते। इन लोगों में न तो कोई उत्साह है और न ही ऊर्जा। यहां तक तो ठीक है, लेकिन इनमें एक प्रकार का अहंकार भी नज़र आता है—हम तो सब जानते हैं और हम कृष्णमूर्ति वाले समुदाय से हैं, इसलिए हम सबसे बेहतर भी हैं। इस अहंकार के साथ एक दिखावटी विनम्रता भी समाई रहती है।
मैं क्षमा चाहता हूँ, मैं यह केवल कृष्णमूर्ति के अनुयायियों के बारे में नहीं कह रहा हूँ। मैंने इसे अपने भीतर भी महसूस किया है। मैंने थोड़ा बहुत धर्मपाल जी, गांधी जी और कृष्णमूर्ति जी आदि को पढ़ा है और कुछ बौद्धिक शिविरों में निरंतर भाग लेता रहा हूँ। अतः मैंने खुद में इस मनोदशा को देखा है और अपने आसपास के लोगों को भी इस स्थिति से ग्रस्त पाया है।
यह स्थिति एक प्रकार की मानसिक जड़ता है—खुद को कुछ मान लेना और मन की गहराईयों में, जहाँ सीखने की या जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए, वहाँ स्थायी रूप से एक पूर्ण विराम लगा देना। यह स्थिति खासकर तथाकथित गांधीवादियों में बहुत आम है। यह हमारे व्यक्तित्व का एक बहुत ही बारीक पक्ष है, जो हमें दिखता नहीं है, लेकिन इसी कारण से हम बहुत कमजोर हो जाते हैं। हमारा समग्र ओज समाप्त हो जाता है। हम किसी को भी प्रेरित नहीं कर पाते और भ्रम में जीते रहते हैं। मैंने तो यह भी अनुभव किया है कि हमारी यह कमजोरी, यह दिखावटीपन, हमारे सिवा सबको दिखता है। उसके बावजूद क्योंकि समाज में वास्तविक बौद्धिक लोग बहुत कम हैं, और क्योंकि आपके पास किसी एक समुदाय या विचारधारा के बारे में बहुत सारी जानकारी होती है, इसलिए आपको दिखावटी सम्मान भी मिलने लगता है। और इस कारण, भ्रम का एक यह अनवरत जाल हमेशा चलता रहता है।
कृष्णमूर्ति जी कई बार कहते हैं कि यदि हम अपनी स्थिति को ईमानदारी और साहस के साथ देख लें, तो चीजें बदलने की शुरुआत हो जाती है। इसके लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। “मैं ऐसा नहीं हूँ” या “हाँ, मैं ऐसा ही हूँ”—इन दोनों स्थितियों में निष्कर्ष छिपा हुआ है, जो कि अधूरा है। यदि किसी क्षण स्वम् को समग्रता से देख पाने की स्थिति आपको प्राप्त हो भी जाए तो भी इस क्षण में शांत बने रहें, किसी जल्दी में न हों। बदलाव स्वयं ही घटित होगा। खुद को जैसे हम हैं, वैसे ही देखना, यह बहुत बड़ी शक्ति प्रदान करता है।
इस स्थिति में पहुंचने के लिए हमें अपने साथ बहुत कठोर होना पड़ेगा, खुद को कोई रियायत नहीं देनी होगी, लेकिन साथ ही, पूरी वास्तविक विनम्रता के साथ।
अपनी कमजोरियों को जैसे वे हैं, वैसे ही देखना और फिर उनके साथ रहना—यह कैसे संभव होगा? इसके लिए हमें व्यक्तिगत या संस्थागत स्तर पर कुछ विचार करना होगा। हमें परत दर परत स्वयं को भीतर से छीलना होगा। निस्संदेह, इसमें पीड़ा होगी, चीख निकलेगी, लेकिन यह करना ही होगा। इस प्रक्रिया में हमारी मदद कोई नहीं कर सकता—न कृष्णमूर्ति, न गांधी, न धर्मपाल, न नागराज बाबा, कोई भी नहीं।
व्यक्तिगत स्तर पर, मेरा कृष्णमूर्ति फाउंडेशन या किसी अन्य ऐसे संस्थान से कोई जुड़ाव नहीं है। लेकिन हाँ, मैं हमेशा मौलिकता और ईमानदारी की तलाश में रहता हूँ। इसी तलाश ने मुझे ऐसे आयोजनों में भाग लेने, नए लोगों से मिलने, उन्हें समझने और अपने अनुभवों से कुछ सीखने के लिए प्रेरित किया है।
‘KFI Annual Gathering-2024’ के दौरान, मैंने अपने भीतर जो भी चल रहा था, उसे गहराई से देखने का प्रयास किया। मैंने अपने अनुभवों को यहाँ बिना किसी लाग-लपेट के, ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यहाँ उठाए गए अधिकतर प्रश्न मेरे स्वयं से ही हैं।
मैंने स्वम् में यह देखा है कि मैं भी प्रभावों से मुक्त नहीं हूँ। मैं अपनी स्मृतियों से संचालित हूँ। आधुनिकता और मुख्यधारा की शिक्षा ने मेरे चिंतन की मौलिकता को प्रभावित किया है। अपने आपको समग्रता से देखने के प्रयास में, मैंने अपने भीतर कई स्तरों पर विखंडन पाया है। मैंने देखा कि मैंने एक बनावट ओढ़ रखी है, जो मेरी भीड़ में अपनी पहचान स्थापित करने की लालसा को प्रकट करती है। मैंने अपने भीतर लोकेषणा (सार्वजनिक प्रशंसा की चाह) जैसी इच्छाओं को भी महसूस किया है। ये सब भावनाएँ मुझमें मौजूद हैं। इन भावनाओं को मैं किसी भी तरीके से समाप्त या बदल नहीं सकता। ये जैसे हैं, वैसे ही हैं। इन्हीं भावनाओं को विस्तार देने पर मुझे अपने आसपास के परिवेश में भी यही सब कुछ दिखाई देने लगता है। इसमें ‘KFI’ और उससे जुड़े लोग भी शामिल हैं। वे अलग नहीं हैं।
मैंने जो कुछ आपमें देखा है, वह केवल इसलिए पहचान सका हूँ क्योंकि पहले मैंने उसे स्वयं में देखा है। इस देखने के अनुभव को और अधिक गहराई से समझने के लिए, मैंने इसे यहाँ लिपिबद्ध किया है। इसके अलावा, इसका कोई अन्य उद्देश्य नहीं है।
अनिल मैखुरी
16 नवम्बर, 2024
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