Anubhava and Maanyataaye

अनुभव और मान्यताएं

अनुभव को मान्यताओं से अलग रखना जरूरी है, अन्यथा अनुभव पर बहुधा मान्यताएं हावी हो जाती हैं। मान्यताएं अपनी memory में होती हैं, विगत से आती हैं। अनुभव वर्तमान में होता है फिर वह हमारी मान्यता बन सकता है।

अनुभव में भेद करना जरूरी लगता है। दो अलग अलग प्रकार के अनुभवों की बात करना होगी।

एक तो ज्ञान का अनुभव। जब आपको वास्तविकता या वस्तु जैसी मूल में है वैसी दिख जाती है। अर्थात ‘सनातन सत्य’ आपके लिए उद्घाटित हो जाता है, जैसे शरीर नश्वर है और आत्म अमर इसका साक्षात्कार हो जाय। यह फिर मान्यता न रह कर आपका ज्ञान हो जाता है। इसमें फिर कोई संशय नहीं रह जाता। यह सिर्फ दिमागी तौर पर या सिर्फ intellectualy नहीं बल्कि यह ज्ञान आपमें उतर जाता है या आपके होने का हिस्सा बन जाता है। अर्थात इसके लिए आपको कुछ करना नहीं पड़ता यह स्वतः ही यह आपके व्यवहार में आ जाता है। इस बोध से बहुत से repurcussions भी अपने आप आपमें होते है। करना नहीं होता, चेष्टा नहीं होती। यह वैसा ही है जैसे गर्म पानी को आप स्वतः ही फूंक मार कर पीते हैं, चेष्टा नहीं करना पड़ती और सामान्य पानी को आप दूसरी तरह से पीते है।

एक दूसरा अनुभव भी सामान्य रूप से हमें होते रहता है। दिन भर। छोटे से लेकर बड़े तक। जैसे सर्दी गर्मी का अनुभव, त्वचा के द्वारा। स्वाद का अनुभव जीभ के द्वारा इत्यादि इत्यादि। इसके अलावा जो कुछ हम देखते है सामायिक घटनाएं, जो कुछ हमारे आगे पीछे चलता है, घरों में, युवाओं में, समाज में सड़कों पर, दुकानों में, लोगों के व्यवहार में, आदान प्रदान में, संप्रेषण में, भाषा में, गाली गलौच में, नेताओं में, यानि हर जगह, हर संदर्भ में, हर समय हमें अनुभव होता ही रहता है। इसमें स्थायित्व नहीं होता परन्तु पैटर्न होता है। यह बात गौर करने जैसी है।

पहला अनुभव जो महात्माओं को होता है। ज्ञान का, सत्य का वह स्थाई होता है। वह एक जैसा सनातन होता है इसलिए व्यवहार में उतरता है।

दूसरा वाला अनुभव बदलते रहता है पर अगर हम ठीक से बुद्धि का इस्तेमाल करें तो इन अनुभवों में हमें पैटर्न दिखाई देंगे। ये पैटर्न अगर जांचने पर ठीक लगते हों तो इनसे विचार बन सकते है सामायिक स्थिति परिस्थिति को समझने के लिए ये कारगर हो सकते है और इन्हीं से युक्ति और कार्यक्रम भी निकल सकते हैं। सरण साहब इन अनुभवों की बात कर रहे हैं, की आधुनिक आदमी अपने अनुभवों को भी नहीं देख रहा। यह बात हिन्दू मुसलमान, जाति इत्यादि के संदर्भ में देखने से सिद्ध होती है।

एक और बात। मान्यता वाली। मान्यता अनुभव से अलग है। हालांकि दोनों के बीच संबंध है। मान्यता को पहचानना अति आवश्यक है। इसे अपना अनुभव मानने की भूल यदि होती है तो फिर ज्ञान के रास्ते में एक बड़ा अवरोध पैदा हो जाता है। जैसे पहले वाला ज्ञान वाला अनुभव अडिग होता है, मान्यता को अगर मान्यता न माना जाय तो वह भी भ्रम वश अडिग हो जाती है, अपने अंदर। इसलिए मान्यता को मान्यता पहचानना जरूरी है।

समझना: समझना अपने को केंद्र में रखे बगैर संभव नहीं। “अपना” जैसा भी हो, इसे केंद्र में रखना ही होगा। यह बेसिक जिम्मेदारी भी है और सनातन सत्य भी। बल्कि इसी सत्य के आधार से यह जिम्मेदारी निकलती है। यह उपदेश नहीं, ऐसा ही है।

इसमें सिर्फ एक अपवाद हो सकता है। भक्ति। भक्ति में पूर्ण समर्पण है जो आज के पढ़े लिखे दिमाग के बस की बात ही नहीं रह गई है। आधुनिकता और आधुनिक विज्ञान की पढ़ाई ने यह permanent damage कर दिया है। हां अपवाद हर जगह होते हैं। उन्हें छोड़ कर।

अपने को केंद्र में रख कर ही हम सचमुच समझ सकते हैं। दूसरा रास्ता भी है कि हम समझे तो नहीं हैं लेकिन हम मान रहे हैं, विश्वास कर रहे हैं। सामान्य भारतीय के दिमाग में समझने को लेकर कोई बहुत व्याकुलता नहीं है। उसे स्पष्ट है कि वह मान रहा है, विश्वास कर रहा है। आधुनिक दिमाग को यह फर्क ही स्पष्ट नहीं है कि वह कब मान रहा है, क्या मान रहा है। आधुनिक शिक्षा ने सब गड्डमड्ड कर दिया है। इतना कूड़ा करकट अंदर चला गया है और इस कूड़े करकट की मान्यताएं दिमाग में हावी हैं और उसे दिखाई नहीं पड़ता कि ये मेरी मान्यताएं हैं और मेरी सोच को, विचार को, निर्णयों को, प्रभावित कर रही हैं। फ्रीडम, राइट, democracy को लोक हित का पर्याय मानते है। ये मान्यताएं ही तो हैं। पर उस दिमाग को समझ नहीं आता जल्दी से क्योंकि चारों तरफ का वातावरण उन मान्यताओं को support करता है और अंदर से अपना अभिमान (arrogance that I am a thinker, educated, concerned citizen etc etc).

दूसरी तरफ शास्त्र मानने वाले। मैं बड़े महात्माओं की realised souls की बात नहीं करता। वे शास्त्र को मानते नहीं जानते हैं। उनकी बात नहीं करता। जो मानते हैं उनकी बात करता हूं। इन लोगों का दिमाग भी आधुनिक पढ़े लिखों की तरह जड़ हो जाता है। पहले वाले आधुनिक मान्यताओं और आधुनिक साइंस से पीड़ित हैं, ये शास्त्रों से। फर्क ज्यादा नहीं।

आज भारत कहां खड़ा है। देखा जाय। यह भारत कब से कराह रहा है यह हमारे अनुभव में आना चाहिए। आधुनिक मान्यताएं और शास्त्र दोनों को एक बार दूर रख कर देखा जाय। हिंदू मुसलमान के मामले की वास्तविकता, उसके ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाय, आज यहां और सऊदी, UAE, ईरान इत्यादि में जो हो रहा है उसे देखा जाय, मुस्लिम लीडरशिप को देखा जाय, राजनैतिक दलों को देखा जाय, वोट बैंक पॉलिटिक्स को देखना जाय। उसी तरह जाति के मसलों को देखा जाय। आज भी छुआछूत है तो उसे देखा जाय, आज की हकीकत को देखा जाय। इन अनुभवों को अपनी मान्यताओं से अलग रखा जाय।

गुरुजी रविन्द्र शर्मा ने इन सब को देखने का एक नजरिया दिया पर वह आज की परिस्थिति से निपटने के लिए काफी नहीं है। इसी तरह धर्मपाल जी तो कहते कहते थक गए कि भाई आज की चीजों को देख कर परंपरा में नवीनीकरण जरूरी है। करो। पर हम अटक से गए। इस नवीनीकरण पर ध्यान देना होगा। शास्त्रों का, महामात्माओं का सम्मान है जैसे धर्मपाल जी या गुरुजी का पर अटकने से तो काम चलने वाला नहीं।


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