‘अर्धनारीश्वर’ एवं ‘सम्पूर्णता’
आज की दुनिया में हम सहजता और सम्पूर्णता में चीजों/विषयों को देख ही नहीं पा रहे हैं। मानस ही कुछ ऐसा हो गया है कि हम एक समय में सिर्फ एक ही चीज को देख पाते हैं। इसके चलते संभवतः सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ उसका जुड़ाव देखने के बजाय हमें सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ उस एक ही चीज का संघर्ष दिखायी देने लगता है।
‘अस्तित्व की सम्पूर्णता’ यह आयाम ही हमारी दृष्टि से ओझल हो गया है।
हमारी शिक्षा प्रणाली, हमें इस तरह के मानस को अपनाने के लिए प्रेरित करती है। स्कूली शिक्षा का विभिन्न विषयों में विभाजन और किसी एक विषय में विशेषज्ञता को प्राथमिकता देना इसका एक स्पष्ट उदाहरण है।
संघर्ष देखने के इसी मानस के चलते हमने जो सबसे बड़ा और खतरनाक संघर्ष खड़ा किया है, वह है स्त्री और पुरुष का संघर्ष।
वास्तव में ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ या ‘नर’ और ‘नारी’ या ‘पुरुष’ और ‘प्रकृति’ में भेद जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। दोनों के समन्वय से ही सम्पूर्णता का निर्माण होता है। इस अवधारणा को ‘अर्धनारीश्वर’ के अद्भुत प्रतीक में भी देखा गया है। शिव और शक्ति का यह संयुक्त रूप दर्शाता है कि भेद केवल हमारी दृष्टि का भ्रम है, वास्तविकता में तो दोनों के मेल से ही अस्तित्व पूर्ण होता है।
जैसा कि पहले भी कहा गया कि आधुनिक दृष्टिकोण, चीजों/विषयों को खंडों में देखने के लिए प्रेरित करता है, अतः हम सम्पूर्णता में चीजों को देखने के बजाय संघर्ष को ही देखते हैं। जहाँ संघर्ष होगा, वहाँ द्वंद्व होगा। और यह द्वंद्व ‘नारीवाद’ व ‘पुरुषवाद’ जैसे खतरनाक विचारों को जन्म देगा। यह विचार आधुनिक मस्तिष्क की सबसे हानिकारक उपज हैं।
सनातन धर्म ने इन विभाजनों को मिटाने के लिए जो प्रतीक गढ़े हैं, वे गहरे अर्थों से परिपूर्ण हैं। ‘शिव और शक्ति’, ‘विष्णु और लक्ष्मी’, ‘कृष्ण और राधा’ आदि इन सभी संबंधों में न तो संघर्ष की बात है और न ही वर्चस्व की। ये सभी मिलकर सहज सम्पूर्णता का अनुभव कराते हैं।
संस्कृत और हिंदी भाषा की व्याकरण संरचना भी इस दर्शन को रेखांकित करती है। जैसे आकाश और भूमि, नदी और सागर, फूल और पत्ती, पेड़ और टहनी, पर्वत और चोटियाँ, खेत और क्यारियाँ, दरवाजे और खिड़कियाँ – ये सभी उदाहरण हमें स्त्री और पुरुष की अवधारणात्मक सम्पूर्णता की ओर इशारा करते हैं। इनमें से किसी एक की भी कल्पना दूसरे के बिना नहीं की जा सकती। यह केवल संयोग नहीं है, इसके पीछे हमारी परंपरा की गहरी समझ है। यहाँ कोई पदानुक्रम नहीं है, बल्कि यह सम्पूर्णता को दर्शाता है।
मानव इतिहास में वह क्षण बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा होगा जब स्त्री और पुरुष को अलग-अलग इकाई के रूप में देखा गया। वास्तव में यह दोनों मिलकर ही एक सम्पूर्ण इकाई बनाते हैं, जिसे परिवार कहा गया। फिर इसमें अन्य आयाम जुड़ते चले गए और कुल, समुदाय या समाज का निर्माण हुआ होगा। ‘अर्धनारीश्वर’ के स्वरूप में भी यह स्पष्ट होता है कि शिव और शक्ति अपने-अपने स्वरूप में पूर्ण हैं, लेकिन उनका मिलन सम्पूर्णता को जन्म देता है। परिवार की संरचना भी इसी सिद्धांत पर आधारित रही होगी। परिवार एक सम्पूर्ण और सहज इकाई है। परिवार की दो धुरियों में से किसी एक को अधिक या न्यून आंकना या उनमें संघर्ष को देखना, अज्ञान है। पुरुष और प्रकृति दोनों का स्वभाव भिन्न है तथापि ‘जन्म’ इनके ऐक्य से निर्मित हुई सम्पूर्णता का सहज परिणाम है। ‘जन्म’, अस्तित्व के सतत निरंतरता का एक मूल कारण है।
अनिल मैखुरी
16 दिसम्बर, 2024
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