Arth ka Anubhav aur Shabd

अर्थ का अनुभव और शब्द
जब मनुष्य के बीच भाषा विकसित हो रही होगी, तब वस्तुओं और क्रियाओं के नामकरण अपने-अपने स्तर पर हो रहे होंगे। नामकरण से पहले भी ये सभी वस्तुएँ और क्रियाएँ अस्तित्व में रही ही होंगी। मनुष्य ने अपने संचार की सुविधा के लिए उन्हें अपनी भाषा के अनुसार शब्द दिए। ये शब्द मनुष्य के मस्तिष्क में सृजित हुए और वस्तुओं और क्रियाओं पर आरोपित हो गए। शब्दों के आ जाने से वस्तुओं अथवा क्रियाओं की वास्तविकता पर कोई फर्क नहीं पड़ा। शब्द, निसंदेह, एक बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण सुविधा हैं। इनके बिना मनुष्य का संसार संभव ही नहीं है। लेकिन यही शब्द मनुष्य की बौद्धिकता और अर्थ के मध्य खड़े हो गए हैं। इसे थोड़ा समझने का प्रयास करते हैं।

एक नवजात शिशु को प्यास लगी। अभी भाषा संसार से उसका परिचय नहीं है। उसे ‘प्यास’ का और ‘पानी’ से ‘प्यास’ शांत हो जाती है, यह दोनों अनुभव हो रहे हैं। धीरे-धीरे वह भाषा सीखता है और उसे जो लग रहा है, उसे ‘प्यास’ कहते हैं और जिससे वह शांत हो रही है, उसे ‘पानी’ कहते हैं। उसे अपनी बात को कहने के लिए ये दो शब्द मिलते हैं। इन दो शब्दों का परिचय मिलने से पूर्व उसे इनके ‘अर्थ का अनुभव’ स्वयं के भीतर हो चुका था। निःसंदेह, शब्द से उसे सुविधा होती है, लेकिन इससे ‘प्यास’ और ‘पानी’ की वास्तविकता में कोई परिवर्तन नहीं होता।

‘अर्थ का अनुभव’ स्वयं के भीतर होता है। यह प्राकृतिक है। यह अनुभव ही हमें वास्तव में शिक्षित करता है। लेकिन हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें अनुभव से सीखने की जो प्रक्रिया है, उससे विमुख कर देती है। वहाँ सिर्फ शब्द हैं, उनके अर्थों या वास्तविकताओं का अनुभव नहीं है। इस पर हम सभी को थोड़ा मनन करने की आवश्यकता है। हमारा सम्पूर्ण चिन्तन या अवलोकन शब्दों से भरा हुआ है। जबकि संभवतः अर्थ – अर्थात वास्तविकता या सत्य – शब्दों से परे है।

‘सम्मान’ शब्द को अपने अनुभवों से जोड़कर देखने का प्रयास करते हैं। क्या ‘सम्मान’ अस्तित्व में किसी भी रूप में है? नहीं। लेकिन प्रत्येक मनुष्य ‘सम्मान’ को अनुभव कर सकता है। अर्थात जो हम अनुभव करते हैं, उसे सम्मान कहा गया है। उससे जुड़ी कोई भी क्रिया वास्तव में सम्मान नहीं है। उदाहरण के लिए, किसी के पैर छूना सम्मान नहीं है। वह केवल एक क्रिया है, जिसके माध्यम से सम्मान व्यक्त किया जा रहा है। उस क्रिया को सम्मान शब्द नहीं दिया गया है, अनुभव जो आपके भीतर हो रहा है, उसे सम्मान शब्द दिया गया है। अर्थात सम्मान का अर्थ अपने भीतर है, जिसे सत्य भी कह सकते हैं। उस अनुभव को देखने की शिक्षा हमें नहीं मिल पा रही है। इसलिए आधुनिक मानस शब्दों और क्रियाओं में उलझा हुआ है।

मनुष्य ने अपने संसार की सुविधा के लिए अनेक अवधारणाओं और शब्दों की कल्पना की हुई है। ये कल्पनाएँ ठीक वैसी ही हैं, जैसा आज हम किसी नए उपकरण (गैजेट) का निर्माण अपनी सुविधा के लिए कर लेते हैं। शब्द और अवधारणाएँ भी एक प्रकार के गैजेट ही हैं। लेकिन समय के साथ हम इस महीन भेद को लगभग भूल गए हैं और स्वयं के द्वारा निर्मित इन शब्दों और अवधारणाओं को ही सत्य मानने लगे हैं।

उदाहरण के लिए, आज वैज्ञानिक अनेक यंत्रों और सैटेलाइट के माध्यम से मौसम का पूर्वानुमान लगा लेते हैं। यंत्र यह तय नहीं कर रहे हैं कि मौसम कैसा रहेगा, वे सिर्फ सैटेलाइट के माध्यम से देख रहे हैं, विश्लेषण कर रहे हैं और उसके अनुसार हमारी सुविधा के लिए एक अनुमान बता रहे हैं। लेकिन यदि हम सावधान नहीं रहे, तो आने वाली पीढ़ियाँ यह मानने लगेंगी कि यंत्र ही तय कर रहे हैं। जैसे हम आज मानते हैं कि ‘सूरज पूरब से उगता है’, वास्तव में जिस दिशा से सूरज उगता है, उसे हमने पूरब नाम दिया हुआ है। दिशाओं को नाम, समय की गणना, मौसम से जुड़ी अवधारणाएँ आदि – ये केवल हमारी सुविधा के लिए की गई हमारी कल्पनाएँ हैं। ये वास्तविकताएँ नहीं हैं।

एक बहुत रोचक किस्सा है। सन् 1930 में वैज्ञानिकों ने प्लूटो को हमारे सौरमंडल में नौवें ग्रह के तौर पर पहचाना। सन् 2006 में अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ द्वारा प्लूटो को बौने ग्रह के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया। इससे प्लूटो के अस्तित्व पर रंच मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। वह पहले भी वैसा ही था और आज भी वैसा ही है। मनुष्य उसे अपनी सुविधा के लिए अलग-अलग तरह से परिभाषित कर रहा है। अर्थ या वास्तविकता, प्लूटो ग्रह की तरह हैं। उस आप कोई भी शब्द दीजिए उसेसे उसके अस्तित्व पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

अपने अनुभवों से विमुख हो चुके हम लोग शब्दों को ही सत्य मानने लगे हैं। शब्दों से सूचना तो मिल सकती है, लेकिन मनुष्य में ज्ञान या बुद्धिमत्ता केवल अनुभूति से ही आएगी।

प्राकृतिक तौर पर हम अपनी अनुभूति से सीखते हैं, लेकिन आज की शिक्षा सीखने की इस प्राकृतिक प्रक्रिया को अवरुद्ध कर हमें शब्दों के मायाजाल में फंसा देती है। इसका परिणाम यह होता है कि हमारा सम्पूर्ण चिन्तन तर्क प्रधान या शब्द प्रधान हो गया है, जबकि मौलिक चिन्तन की क्षमता, जो अनुभूति या अर्थ प्रधान होती है, वह हममें विलुप्त होती जा रही है।

अनिल मैखुरी
01 फरवरी, 2025


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