Bhakti and Seva

सेवा और भक्ति

पिछले दो माह शिवानंद आश्रम, ऋषिकेश में रहा। वहाँ योग एवं वेदान्त का एक बहुत ही बेसिक कोर्स करने का अवसर प्राप्त हुआ। इन 59 दिनों में मैंने बहुत कुछ सीखा और जाना। इस दौरान जिन दो विषयों ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वे हैं—सेवा और भक्ति।

हालाँकि इनका हमारे कोर्स से कोई सीधा संबंध नहीं था, लेकिन शिवानंद आश्रम का जो समग्र परिवेश है, उसमें ये दो मूल्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं—ऐसा मुझे प्रतीत हुआ। इसके साथ ही यह भी समझ में आया कि जब आपके भीतर भक्ति जागती है, तो सेवा स्वतः ही आपके माध्यम से घटित होने लगती है। साथ ही, सही अर्थों में सेवा के बिना भक्ति संभव ही नहीं है। साधक द्वारा भक्ति या सेवा की नहीं जाती, यह तो उसके द्वारा प्रभु की इच्छा से घटती है। इसमें ‘करने’ जैसा भाव नहीं है, यहाँ ‘होने’ जैसा भाव है।

मैं पिछले दो दशकों से ‘सामाजिक कार्य’ (Social Work) के क्षेत्र में रहा हूँ। इस दौरान मैंने कई परियोजनाओं के साथ काम किया है, जिनमें शिक्षा, बाल विकास, महिला विकास, पर्यावरण संवर्धन, कृषि विकास, आजीविका, स्वास्थ्य आदि प्रमुख क्षेत्र रहे हैं। इन सभी परियोजनाओं में एक बात कॉमन रही है—कि इसमें हम लोगों के साथ काम करते हैं। हमारे पास—अर्थात परियोजना कार्यकर्ताओं के पास—इन सभी क्षेत्रों का तर्क आधारित असीम ज्ञान होता है, जो हमें लोगों को देना होता है, ताकि उनके जीवन में बदलाव आ सके या वे अपने अधिकारों और अपने परिवेश के प्रति जागरूक हो सकें।

इन सभी परियोजनाओं में जिनके साथ हम काम कर रहे होते हैं, उन्हें लाभार्थी की तरह देखा जाता है और उनसे कुछ अपेक्षाएँ भी रहती हैं। दूसरा जो महत्वपूर्ण दृष्टिकोण यहाँ दिखता है, वह यह है कि परियोजना या कार्यकर्ता लाभार्थी के लिए कुछ करता है—निःसंदेह, उसकी भलाई के लिए, उसके विकास के लिए आदि-आदि। लाभार्थी से भी परोक्ष यह अपेक्षा रहती है कि वह यह समझे कि उसके लिए कुछ किया जा रहा है और वह उसका संज्ञान ले। इसमें स्पष्ट रूप से दो पक्ष हैं—एक करने वाला और दूसरा ग्रहण करने वाला।

मैं इसका विरोध नहीं कर रहा हूँ, बल्कि परियोजनाओं के दृष्टिकोण को जैसा है, वैसा देखने का प्रयास कर रहा हूँ।

शिवानंद आश्रम में जिस सेवा-भाव से मेरा परिचय हुआ, उसमें जिसकी सेवा की जा रही है, उससे कुछ भी अपेक्षा नहीं है। बल्कि उसे तो ईश्वर का स्वरूप मानकर उसकी सेवा की जा रही है। उसकी सेवा करने से साधक (कार्यकर्ता नहीं), अपने ईश्वर के और समीप जा रहा है—यह दृष्टिकोण है।

परियोजनाओं में जिन विषयों पर मैंने बात की—जैसे शिक्षा, बाल विकास, महिला विकास, पर्यावरण संवर्धन, कृषि विकास, आजीविका, स्वास्थ्य आदि—वे सभी यहाँ की सेवा में भी शामिल हैं, लेकिन दृष्टिकोण बिलकुल भिन्न है। जिसकी सेवा की जा रही है, वह प्रमुख है; जो सेवा कर रहा है, वह गौण है—वह तो साधक है। सेवा उसकी साधना का ही एक माध्यम है।

लगभग आठ सप्ताह शिवानंद आश्रम में रहकर मैंने यह देखा कि भक्ति सम्पूर्ण समर्पण में ही संभव है। ‘मैं’ का लुप्त हो जाना ही भक्ति है। यह बुद्धि के स्तर पर संभव नहीं है। बुद्धि से परे चले जाना ही भक्ति है। जिसके मन में भक्ति जागृत हो रही है और जिसके प्रति भक्ति की जा रही है, उनके मध्य कोई भेद नहीं रह जाता। दोनों का एकाकार ही भक्ति है। इस एकाकार के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रह जाता—न प्रकृति, न जीव। केवल ब्रह्म ही शेष रह जाता है; बाकी सब कुछ मिथ्या स्वरूप है।

नाम-जप, भजन, कीर्तन, सत्संग, स्मरण आदि के साथ सेवा भी भक्ति का ही एक रूप है। भक्तिमय होकर जब आप सेवा करते हैं, तो जिसकी सेवा की जा रही है उससे कोई अपेक्षा नहीं होती। वह प्रभु के साथ जो आपने एकाकार की अवस्था प्राप्त की है, उसी का एक अंश मात्र है, और सेवा के उस क्षण में उसके लिए जो भी श्रेष्ठ किया जा सकता है, किया जाता है।

आधुनिकता में भक्ति के भाव को बहुत ही तुच्छ समझा जाता है। वहाँ प्रोफेशनलिज़्म की बात होती है। वहाँ मनुष्य और उसकी बुद्धि ही सर्वोपरी है, और सब कुछ को नियंत्रण में रखना ही प्रबंधन है।

शंकराचार्य द्वारा प्रश्न-उत्तर की शैली में लिखा गया एक ग्रंथ है—‘तत्त्वबोध’। इसमें मोक्ष प्राप्ति हेतु चार साधनों का उल्लेख है, जिनमें पहला और सबसे प्रमुख साधन है—नित्य-अनित्य वस्तु का विवेक। अर्थात, वास्तविक और अवास्तविक, या सत और असत, या नित्य और अनित्य का भेद ही विवेक है।

आधुनिकता में इस प्रकार के विवेक का अभाव है। वहाँ जो कुछ मनुष्य की बुद्धि मानती है, वही विवेक समझा जाता है—अर्थात तर्क ही विवेक है। तर्क से परे की कोई भी वस्तु आधुनिक दृष्टि में स्वीकार्य नहीं है। और यह तर्क प्रतिदिन बदलते रहते हैं। लेकिन ‘वास्तविकता’ इस प्रकार से बदलती नहीं है। वह नित्य है—वह किसी भी समय, काल या स्थान के अनुसार बदलती नहीं है। वह पुरातन है और सदा रहने वाली है।

जब मनुष्य में इस प्रकार के विवेक का जागरण होता है, तभी वह भक्तिमय हो पाता है और फिर वह सेवा की ओर प्रवृत्त होता है। स्वामी शिवानंद महाराज के विषय में कहा जाता है कि उन्हें यह विवेक प्राप्त हुआ था, इसलिए उन्होंने सेवा में भक्ति और भक्ति में सेवा को देखा। और आज भी शिवानंद आश्रम के भीतर जिस प्रकार की ऊर्जा है, उसमें यही भाव ओत-प्रोत हैं—यह मैंने अपने इस दो महीने के प्रवास में अनुभव किया।

अनिल मैखुरी

04 अप्रैल, 2025


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