हमारे प्रयास और ईश्वरीय हस्तक्षेप
हम सभी को लता मंगेशकर को सुनना पसंद है। मुझे तो यह बहुत ही प्रिय है। कुछ दिनों पहले मैं यूट्यूब पर एक युवा गायिका को सुन रहा था। वह बहुत सुंदर तरीके से लता जी का गाया हुआ गाना प्रस्तुत कर रही थीं। गाने के बाद उनसे पूछा गया, “आपने लता जी का गाना इतनी खूबसूरती से गाया, आप उस महान गायिका से क्या प्रेरणा लेती हैं?”
युवा गायिका कुछ देर रुकी, थोड़ा सोचा, और फिर हृदय की गहराई से उत्तर दिया, “लता ताई जब भी गाती थीं, वह ‘effortless’ गाती थीं। उन्हें किसी भी गाने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता था।” उसने आगे कहा, “मैं भी स्वयं को उसी स्थिति में देखना चाहती हूँ, जब गाना मेरे द्वारा गाया जाए, लेकिन ऐसा लगे कि ‘मैं’ नहीं गा रही।”
‘Effortless’ शब्द पहले भी मैंने कई बार सुना था, लेकिन उस दिन यह शब्द मेरे मन में ठहर गया। और जब कोई शब्द आपके भीतर ठहर जाता है, तो उसका अर्थ आपके भीतर से ही उद्घाटित होने लगता है। हालांकि, इसके लिए धैर्य रखते हुए कुछ समय उस शब्द के साथ रहना होता है। यहाँ भी प्रयास नहीं करना पड़ता; यह प्रक्रिया स्वतः ही आपके भीतर होने लगती है। यदि आप इसे शांति से स्वीकार करें…
आज हमारे मानस का ऐसा स्वरूप हो गया है, जिसमें ‘प्रयास’ यानी ‘कुछ करना’ अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है। हम ऐसी किसी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते, जहाँ हम कोई प्रयास न करें या कुछ भी न करें। आधुनिक व्यक्ति यह मानता है कि उसके किए बिना कुछ नहीं होगा। वह ईश्वर को एक शब्द के रूप में तो जानता है, लेकिन उसके अर्थ को अपने भीतर देखने का प्रयास कभी नहीं करता। क्योंकि ये दो विचार एक साथ नहीं चल सकते—एक तरफ आप यह मानें कि ‘सब कुछ आप कर रहे हैं,’ और दूसरी तरफ यह भी मानें कि ‘ईश्वर है।’ क्योंकि यदि ‘ईश्वर है,’ तो आप कुछ नहीं कर रहे हैं। सब कुछ वही कर रहा है, अर्थात सब कुछ ‘effortless’ है। ऐसी स्थिति में, हर चीज लता ताई के गाने की तरह सुंदर होती है—लय में, प्रवाहमय। फिर, आपका ‘करना’ भी उसी लय के साथ एकात्म हो जाता है। संभवतः ऐसी स्थिति में आप किसी परिणाम या लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ते, बल्कि बस प्रवाहित होते रहते हैं।
लेकिन आज का आधुनिक मनुष्य हमेशा किसी परिणाम को प्राप्त करना चाहता है, कुछ बनना चाहता है, या किसी लक्ष्य तक पहुँचना चाहता है। हमें लगता है कि यदि हम प्रयास नहीं करेंगे, तो ठहराव में फंस जाएंगे। हम सभी के पास एक लक्ष्य की कल्पना होती है, जिसकी ओर हम लगातार प्रयासरत रहते हैं। यह प्रयास हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है।
लेकिन यदि हम प्रकृति को देखें, तो वहाँ कहीं ‘प्रयास’ नहीं है। सब कुछ ‘effortless’ है, स्वाभाविक है। नदी बिना किसी प्रयास के बहती है, और वह बेहद सुंदर है। प्राकृतिक वन बिना किसी प्रयास के उग जाते हैं, और वे भी उतने ही सुंदर हैं। फूलों के रंग, जानवरों के अंग, समुद्र की मछलियाँ, पर्वतों की स्थिरता—ये सब बस ‘हैं’। और यही उनकी सुंदरता है।
अपने अनुभव से मैंने यह देखा है कि जीवन के सभी आयाम जो वास्तव में अर्थपूर्ण हैं, वे भी सहजता से आते हैं। उदाहरण के लिए, क्या खुशी और आनंद प्रयास से आते हैं? कभी-कभी हम बिना किसी कारण के खुश हो जाते हैं, और कभी-कभी सारी कोशिशों के बावजूद खुश नहीं हो पाते। जब-जब ‘सहजता’ जीवन में घटती है, वह अपने साथ प्रसन्नता लेकर आती है। यही सहजता जीवन को सुंदर और अर्थपूर्ण बनाती है।
मेरी बेटी सुंदर चित्रकारी करती है। मैंने देखा है कि उसके लिए यह कोई विशेष प्रयास नहीं है; उसके भीतर यह गुण नैर्सगिक रूप से मौजूद है। उसे चित्रकारी करने में आनंद मिलता है।
इसके विपरीत, यदि मुझे चित्रकारी करनी पड़े, तो उसमें मेरा आनंद का कोई जुड़ाव नहीं होगा। इसलिए मुझे वह करना पड़ेगा, और परिणामस्वरूप, वह सुंदर भी नहीं होगी। जब ‘आनंद’ का आपके ‘करने’ से जुड़ाव हो जाता है, तो सहजता घटती है। यह एक ईश्वरीय घटना है, जो आपके हाथ में नहीं होती।
लेकिन मैंने यह भी देखा है कि कलाकारों में अक्सर यह अहंकार आ जाता है कि वे खुद कुछ कर रहे हैं—वे गा रहे हैं, अभिनय कर रहे हैं, लिख रहे हैं, चित्रकारी कर रहे हैं या किसी और रूप में अपनी कला प्रस्तुत कर रहे हैं। जबकि मुझे लगता है कि कला, किसी भी प्रकार की हो, वह तो ईश्वर के द्वरा किसी व्यक्ति माध्यम से अभिव्यक्त होती है। व्यक्ति यहाँ निमित मात्र है। यह दिखने पर कृतज्ञता का भाव स्वतः ही जागृत होगा।
लता ताई के भीतर भी गाने का गुण नैर्सगिक रहा होगा। ठीक है, उन्होंने साधना और अभ्यास से उसे तराशा होगा, लेकिन मूल में वह नैर्सगिक ही था। यही आधार रहा होगा जिससे वह आगे बढ़ सकीं। और इससे उनका आनंद भी जुड़ा रहा होगा। यही कारण है कि वे बहुत कठिन गानों को भी इतनी सहजता से गा पाती थीं। उनके गानों में कोई प्रयास नहीं, सिर्फ सहजता थी। और इसीलिए, वे हमें भी इतने सुंदर लगते हैं।
करना, अपने आप में संघर्ष है। जबकि जीवन का आनंद संघर्ष से परे है। जीवन में ‘सृजन का क्षण’ संघर्ष से नहीं, बल्कि प्रेम और ईश्वरीय हस्तक्षेप से उत्पन्न होतें हैं। इसी तरह, कला भी ईश्वरीय हस्तक्षेप है। और इसलिए, जीवन सुंदर है, और कला भी।
कुछ दिनों पहले, मैं एक बहुत बढ़िया फिल्म देख रहा था। उसमें कलाकारों ने अद्भुत अभिनय किया था, और निर्देशन भी उत्कृष्ट था। अभिनय वास्तव में एक अद्भुत कला है। जब किसी मंझे हुए कलाकार से अभिनय हो रहा होता है, तो उसके शरीर और मन का हर अंश उस आनंद के क्षण में शामिल रहता होगा। और यही कारण है कि उसका अभिनय हमें सुंदर और सजीव लगता है। जब मैं यह सोच ही रहा था, तो मेरे मन में हमारी फिल्म इंडस्ट्री की एक बहुत ही विभत्स तस्वीर उभरने लगी। मैंने खुद से यह सवाल करना शुरू किया कि कलाकारों से भरा यह क्षेत्र इतना विकृत क्यों है?
आधुनिक युग में हमने हर चीज को व्यापार से जोड़ दिया है। इसी क्रम में सफलता और प्रतिष्ठा को भी धन से जोड़ दिया गया है। यदि ध्यान से देखा जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि यदि कला व्यापार का साधन बन जाएगी, तो उसे धारण करने वाला मानस विकृत हो जाएगा। क्योंकि वह कला का मूल्य मुद्रा में तय करने लगेगा। ऐसा मानस ईश्वरीय हस्तक्षेप को पूरी तरह अनदेखा कर देगा, और उसके भीतर कृतज्ञता का कोई भाव नहीं रहेगा। वह यह मानने लगेगा कि सब कुछ वही कर रहा है—वह गा रहा है, वह अभिनय कर रहा है, वह रच रहा है। यह एक बहुत ही सूक्ष्म भाव है, जिसे समझने के लिए गहराई से देखना होगा।
जब मनुष्य यह मान लेता है कि वही सब कुछ करने वाला है, तो परिणाम (चाहे अच्छा हो या बुरा) आने पर उसे लगता है कि वही इसका कारण है। और इसी सोच के चलते वह अपने आसपास की हर चीज को भी ऐसे ही देखता है—या तो वह कर रहा है, या कोई और (मनुष्य) कर रहा है। इस प्रकार की स्थिति में संघर्ष और विकृति स्वाभाविक हो जाती है। धीरे-धीरे यह विकृति हमारा स्वभाव बन जाती है।
दूसरे शब्दों में, कला और व्यापार के घालमेल से जो स्वभाव निर्मित होता होगा और उसके आधार पर जो अनुभव होते होंगे और उससे जो संसार निर्मित होता होगा वह विकृत हो ही जाता होगा।
शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी यही हुआ होगा। ये दोनों ही क्षेत्र मूल रूप से ‘करने’ के नहीं, बल्कि ‘होने’ के क्षेत्र रहे होंगे। इनमें व्यापार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। बहुत अधिक जानकारी तो नहीं है, लेकिन सुना है कि भारत में कलाकार, ऋषि (शिक्षक), और वैद्य समाज के संरक्षण में रहते थे। समाज उनका सम्मान करता था, और उन्हें जीविका और प्रतिष्ठा सहज ही प्राप्त हो जाती थी। यह सब कुछ सेवा और आराधना का हिस्सा था, न कि किसी व्यापार का। रवींद्र शर्मा जी के वृत्तांतों में इस विषय पर बहुत विस्तार से सुनने को मिलता है। जब यह क्षेत्र व्यापार से जुड़ गए—कलाकार, शिक्षक, और वैद्य को स्वयं पैसे कमाने पड़े, या व्यापारिक लोगों ने उनके माध्यम से पैसे कमाने शुरू कर दिए—तो ये पवित्र क्षेत्र विकृत हो गए। और आज, हम उसी विकृति का परिणाम कई रूपों में अपने सामने देख ही रहे हैं।
प्रश्न यह उठता है कि फिर क्या किया जाए? आज जिस तरह का संसार बन गया है, उसमें व्यापार को पूरी तरह नजरअंदाज करना संभव नहीं है। तो फिर इस तरह के पवित्र क्षेत्रों की पवित्रता कैसे लौटाई जाए? यह हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन जैसे ही यह प्रश्न हमारे भीतर आता है, हम अक्सर फिर से आधुनिकता के जाल में फंस जाते हैं। हम एक व्यावहारिक समाधान की तलाश में लग जाते हैं और मूल प्रश्न को भुला बैठते हैं।
हमनें बात शुरू की थी ‘effortless’ से। फिर हमनें बात की थी स्वयं के ‘effort’ अर्थात प्रयास की या ईश्वर की स्वीकारिता की।
भगवद गीता के 10वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपने दिव्य गुणों का वर्णन करते हैं। वहाँ वे कुछ महत्वपूर्ण घोषणाएँ करते हैं, जो इस विषय से गहराई से जुड़ी हैं। उन घोषणाओं को समझने से हमें इस प्रश्न के उत्तर की ओर एक दिशा मिल सकती है।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।
उक्त श्लोक की स्वामी रामसुखदास जी द्वारा की गयी हिन्दी व्याख्या इस प्रकार है कि ‘हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।’
इसके बाद अध्याय 15 के 15वें श्लोक में भगवान फिर कहते हैं
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।
स्वामी रामसुखदास जी इस श्लोक की हिन्दी व्याख्या इस प्रकार है, ‘ मैं सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करनेवाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।
उक्त श्लोकों का स्मरण मैंने यहाँ इसलिए किया क्योंकि जब सब कुछ का बीज ईश्वर स्वयं हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में वही स्थित है, तो हम ‘करने वाले’ कौन होते हैं? दरअसल, सब कुछ तो वही कर रहा है। यह कहना आसान है, लेकिन इसे वास्तविकता में मानना बहुत मुश्किल है, खासकर आज के परिवेश में। क्योंकि यदि आप यह मान लेंगे, तो आपके माध्यम से ईश्वर स्वयं कुछ करने लगेंगे। आपके स्तर पर तो वह ‘effortless’ (सहज) स्थिति ही होगी, लेकिन वास्तविकता में, अस्तित्व की लयबद्धता में धर्म के अनुसार कुछ सार्थक घटित हो रहा होगा। यह विश्वास हममें रहा है इसे फिर से स्वयं में देखना होगा।
अनिल मैखुरी
01 दिसम्बर, 2024
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