जटिलताओं से मुक्त ‘मैं’
बहुत पहले ‘संवाद की कला’ पर एक लेख पढ़ा था। उस लेख की पहली पंक्ति आज भी मुझे याद रहती है, “आप जिसके साथ संवाद स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, वह किसी अन्य वस्तु से दस गुना अधिक स्वयं में रुचि रखता है।” इसलिए संवाद की शुरुआत हमेशा इस सवाल से करनी चाहिए, “आप कैसे हैं?”
अपने अनुभवों से भी यह मैंने देखा है कि ‘मैं’ हमेशा महत्वपूर्ण होता हूँ, और हम इसे स्वीकार नहीं कर पाते। हम अक्सर नम्रता के दिखावे में रहते हैं कि ‘मैं’ तो महत्वपूर्ण नहीं हूँ, जो काम मैं कर रहा हूँ वह महत्वपूर्ण है। हम कहते हैं, “हमारे लिए तो सेवा महत्वपूर्ण है, देश महत्वपूर्ण है, समाज महत्वपूर्ण है, हमारा समुदाय महत्वपूर्ण है,” आदि। हम स्वयं को जिस पहचान से जोड़ते हैं, वही हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। अगर मैं खुद को अपनी जाति से जोड़ता हूँ, तो मेरी जाति महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर मैं खुद को देश से जोड़ता हूँ, तो देश महत्वपूर्ण हो जाता है। इसी तरह, किसी का समुदाय, क्षेत्र, कुटुम्ब, शहर—ये सभी उसके लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
कभी-कभी लोग कहते हैं, “मैं यह अपने नाम के लिए नहीं कर रहा हूँ,” लेकिन यह सत्य नहीं है। वास्तव में, वे यह कह रहे होते हैं, “मैं अपनी पहचान इस तरह से बनाना चाहता हूँ कि जो महत्वपूर्ण काम मैं कर रहा हूँ, वह मैं निस्वार्थ भाव से कर रहा हूँ।” असल में हम चाहते हैं कि लोग हमें, हमारी इस एक विशेष छवि के साथ जानें।
हमारी सभी इच्छाओं और व्यवहार के केंद्र में हम ही होते हैं। और यह विडंबना है कि हमारी जो सबसे बड़ी ‘कैद’ है, या जो हमारी सबसे बड़ी ‘मजबूरी’ है, वह भी हम स्वयं ही हैं। कैसे? हाल ही में, मैं अपने एक मित्र का विश्लेषण कर रहा था। वह बहुत गुस्से में रहते हैं, जल्दबाजी में निर्णय लेते हैं, और अन्य बहुत सी कमजोरियाँ उनमें देखी जा सकती हैं। अचानक मुझे ध्यान आया, हम दूसरों का विश्लेषण इतनी आसानी से कैसे कर लेते हैं? और खुद का विश्लेषण क्यों नहीं कर पाते? मैंने जब अपने भीतर झाँका, तो मुझे बहुत सी कमजोरियाँ दिखीं। अगला कदम था उन पर काम करना। इस प्रक्रिया में मुझे एहसास हुआ कि मैं किसी और के जैसा बनने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन यह असंभव है। हम वही रहते हैं जो हम हैं, थोड़ा बहुत बदलाव हो सकता है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। इस समझ ने मुझे यह एहसास कराया कि मेरी सबसे बड़ी कैद तो मैं स्वयं हूँ।
मुझे यह बात कभी समझ में नहीं आयी जब लोग कहते हैं कि “बातचीत से हर समस्या का समाधान निकल सकता है।” लेकिन जब हम बातचीत करते हैं, तो हम अपनी ‘कैद’ में बंधे रहते हैं, और दूसरा भी अपनी ‘कैद’ में बंधा रहता है। कोई भी अपनी कैद छोड़ने को तैयार नहीं है, और न ही वह ऐसा कर सकता है। इस स्थिति में, बातचीत का कोई मूल्य नहीं रह जाता।
‘व्यक्तिवाद’ ने इस कैद को और भी मजबूत कर दिया है। शायद पहले हम खुद को परिवार, कुटुम्ब, गाँव या जाति से जोड़कर देख पाते थे। आज की स्थिति यह है कि पति-पत्नी, माता-पिता और उनके बच्चे भी खुद को एक-दूसरे से नहीं जोड़ पा रहे हैं। हर कोई अकेला हो गया है, और इस अकेलेपन ने हमारी कैद को और भी मजबूत बना दिया है। इसलिए संवाद और आत्म-विकास लगभग असंभव हो गए हैं।
‘मैं’ महत्वपूर्ण हूँ—यह एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इसमें कोई गलत बात नहीं है। यह स्वीकारोक्ति सभी में होनी चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि वह ‘मैं’ कौन है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे हमें स्वयं से पूछना चाहिए। और फिर, उस ‘मैं’ को सच में महत्वपूर्ण कैसे बनाया जा सकता है—यह विचार हमें करना चाहिए।
यदि ‘मैं’ सिर्फ एक नाम भर है, तो वह उस कैद में बंधा है, जहाँ सांस लेने तक की जगह नहीं है। आज की आधुनिकता हमें केवल हमारे नाम तक ही सीमित कर देना चाहती है, क्योंकि यह नाम बाजार में एक अच्छा ग्राहक है, लोकतंत्र में एक उपयोगी वोट है, और व्यवस्था का एक आज्ञाकारी कलपूर्जा है। वह सोचता है कि उसकी पहचान केवल उन भौतिक आडम्बरों से जुड़ी है, जो बाजार उसे प्रदान करता है। उसे यह भ्रम है कि लोकतंत्र केवल उसके वोट से चलता है, और वह यह मान बैठा है कि व्यवस्था उसकी सुविधा के लिए बनाई जाती है। इसी कारण वह अपनी पहचान के लिए किसी भी छल या भ्रम में आने को तैयार है। आज का ‘मैं’ एक प्रकार की बेहोशी है, और जो क्लोरोफॉम उसे सूंघ रखा है, वह उसे उसकी शिक्षा, बाजारवाद और उदारीकरण से मिला है।
भले ही ‘मैं’ बेहोश हूँ, इसके बावजूद भी ‘मैं’ हूँ, महत्वपूर्ण हूँ, और कैद में भी हूँ। इस स्थिति में मेरा सम्पूर्ण होना कितना दयनीय है! आज का पूरा सिस्टम विकास की बात करता है, विकास के बड़े-बड़े पैमाने बने हुए हैं। अस्तित्व में एक निश्चित मात्रा में मौजूद संसाधनों के रूप में परिवर्तन को विकास का नाम दिया हुआ है। मुझे यह भ्रम है कि यह सभी ताम-झाम—पूल, सड़के, कारखाने, तकनीकें—आदि सभी कुछ मेरे विकास के लिए हैं। लेकिन चेतना की स्थिति तो दिन-प्रतिदिन दयनीय होती जा रही है। वहाँ तो मेरा विकास हो ही नहीं रहा। ‘मैं’ जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हूँ, उसकी स्वयं की कैद और भी अधिक संकुचित होती जा रही है। इसके चलते मेरे संवाद जटिल से जटिल होते जा रहे हैं। स्वयं की मेरी समझ क्षीण होती जा रही है। मैं, स्वयं के ही विचारों में फंसता और धंसता चला जा रहा हूँ। ‘वास्तविकता’ जैसी भी कोई चीज़ होती भी है, उस पर मेरा विश्वास दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है, और मैं अधिक से अधिक अनुमान लगाने के लिए बाध्य हूँ।
मानवता के लिए ‘मैं’ का विकास या चेतना का विकास प्राथमिक होना चाहिए था, लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि ‘मैं’ किसी की प्राथमिकता में नहीं हूँ—अपनी स्वयं की भी नहीं।
अपनी मजबूरियों की इस कैद का कोई बहुत स्वीकार्य हल इस समय मेरे पास नहीं है। मैं स्वयं में इसे देख पा रहा हूँ। मेरे लिए फिलहाल इसे देखना ही एक समाधान की तरह है। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि समस्या क्या है, इसके साथ कुछ समय रहना होगा, और समाधान भी इसी में से निकलेगा। एक और बात जो समाधान की दिशा में हमें ले जा सकती है, वह है स्वयं को स्वीकार करने का साहस रखना। आप जैसे हैं, वैसे स्वयं को देखना और उसके साथ रहना, और समय के साथ स्वयं की थोड़ी और गहराई में जाना। किसी का पहला लक्ष्य होना चाहिए अपनी जटिलताओं में सहज होना। उलझन भरे ‘मैं’ से जो भी उत्पन्न होगा, वह और अधिक उलझाने वाला होगा। इसलिए शांत रहकर ‘मैं’ को सहज बनाने का प्रयास करना एक सार्थक पहल हो सकती है।
अनिल मैखुरी
23 दिसम्बर, 2024
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