मौलिकता की ओर प्रेरित करता इकोसिस्टम
हम दायरों में रहने के आदी हो चुके हैं। जो भी चला आ रहा है, उसी के अनुसार चलते रहना हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन गई है। “अधिक प्रयास मत करो,” यही हमारा अवचेतन संदेश है। हम शारीरिक परिश्रम के लिए तो तैयार हैं – नौकरी मिल जाए, सुबह 10 बजे ऑफिस जाएँ, शाम को लौट आएँ, आदेशों का पालन करें और व्यस्त रहने का दिखावा करें। हमें रोज बता दिया जाए कि क्या करना है, बस उतना ही कर सकते हैं। जब मैं खुद को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि मैं भी इसी ढांचे का एक हिस्सा हो गया हूँ। अतः यह किसी और की नहीं, मेरी अपनी सच्चाई भी है। आधुनिक व्यवस्था भी हमसे यही अपेक्षा रखती है। मैं मुख्यधारा के लिए एक ’परफेक्ट प्रोडक्ट’ हूँ। हमारे स्कूल, कॉलेज और परिवार ने हमें इसी प्रणाली के अनुरूप ढाला है। यदि हम यह सब करते हैं और महीने के अंत में हमारे खाते में वेतन जमा हो जाता है, तो हमें सफल माना जाता है।
व्यवस्था द्वारा मस्तिष्क का अधिग्रहण
बहुत पहले सुना था कि भविष्य की तकनीकें हमारे मस्तिष्क को नियंत्रित कर लेंगी, लेकिन मैं देख रहा हूँ कि आधुनिक व्यवस्थाएँ पहले ही हमारे मौलिक चिन्तन प्रक्रिया पर नियंत्रण कर चुकी हैं। हमारे जीवन के छोटे से छोटे निर्णय भी इन्हीं व्यवस्थाओं से प्रभावित होते हैं। हम अपने परिवार में कैसे रहेंगे, परिवार हमें कैसे देखेगा – यह भी व्यवस्थाओं द्वारा निर्धारित होता है।
अगर आप तथाकथित शांति के साथ और लगभग एक मशीन बनकर जीवन जीना चाहते हैं तो सभी कुछ ठीक ही है। लेकिन यदि आपको लगता है कि ईश्वर के दिए इस जीवन का कुछ बहेतर उपयोग किया जा सकता है और इसके लिए आप कोई अलग दिशा चुनते हैं, तो फिर आपको सभी कुछ प्रारंभ से सोचना होगा। मौलिक चिंतन करना होगा, जिसकी हमें कोई ट्रेनिंग नहीं मिली है। हमें केवल कॉपी-पेस्ट करना सिखाया गया है, और इसके बाद सृजन का एक झूठा अहसास हमें तृप्त करता है। हमारे दिमाग बँध चुके हैं – चाहे वह बंधन आधुनिकता का हो, सम्प्रदाय का हो, संविधान का हो, या हमारी खुद की छवि का हो। इस बंधन से बहार निकलने के लिए थोडा अतिरिक्त प्रयास आवश्यक है।
एक बार पुनः दोहरा रहा हूँ: यह सब कुछ मैं स्वयं को केंद्र में रखकर कह रहा हूँ। किसी अन्य के लिए नहीं, अपने लिए कह रहा हूँ। एक तरह की स्वीकार्यता का दुःसाहस है।
मौलिकता की ओर एक प्रयास
बहुत कम दिमाग हैं जो शुरू से और मौलिकता से कुछ सोच पा रहे हैं या देख पा रहे हैं। हममें से कुछ ने साहस किया है मुख्यधारा के विपरीत अपनी छोटी सी नहर बनाकर उसमें बहने का, अर्थात ढर्रे से अलग कुछ मौलिक तरीके से सोचने का। इसमें रोज नई चुनौती है। यह चुनौती बाहर से कहीं अधिक स्वयं के भीतर से मिलती है। हमें स्वयं को देखना होगा, अपनी मानसिक संरचना को समझना होगा। हम एक तरह के रोगी हैं, यह स्वीकार्यता स्वस्थ होने की दिशा में पहला और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम है। अपनी कमजोरियों को नज़रअंदाज नहीं कर सकते, उन्हें स्वीकार करना है और जब तक अनुकूल परिस्थितियाँ न बन जाएँ, उनके साथ रहना भी है। इसके बाद अवसर स्वयं ही दिखाई देने लगेंगे – बस उन्हें पहचानने और निर्णय लेने की आवश्यकता होगी।
क्या हम ऐसी व्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं जहाँ हम यह न सीखें कि क्या सोचना है, बल्कि यह प्रेरणा मिले कि कैसे सोचना है? जहाँ आँखों से परे ’देखने’ की क्षमता विकसित की जाए, कानों से परे ’सुनने’ की प्रवृत्ति उत्पन्न हो। आधुनिकता ने इन प्रश्नों को ही गौण बना दिया है। रोटी, कपड़ा और मकान को प्राथमिक प्रश्न बना दिया गया है – निस्संदेह वे आवश्यक हैं, लेकिन वे जीवन का पूरा सत्य नहीं हैं। जीवन का यह केवल एक भाग है। व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए थी कि ये आवश्यकताएँ सहजता से पूरी हों जाएँ, लेकिन वास्तविकता यह है कि सामान्य व्यक्ति का पूरा जीवन इन्हीं मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में, दिखावा करने में और नक़ल करने में ही बीत जा रहा है, और वह इसके परे कुछ सोच भी नहीं पाता।
एक नए इकोसिस्टम की संभावना
क्या कुछ मित्र मिलकर एक ऐसे व्यवहारिक इकोसिस्टम की कल्पना कर सकते हैं जहाँ हम सब कुछ प्रारंभ से सोचें? जहाँ हमारी वर्तमान व्यवस्थाओं पर सीमित निर्भरता हो?
यह समूह अनुभवों से जनित अपनी एक अस्थायी (Tentative) किन्तु ईमानदार (Authentic) समझदारी के साथ किसी भी समुदाय के जीवन से जुड़े। इस जुड़ाव को फलीभूत करने के लिए कुछ सामुदायिक कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं। यह कार्यक्रम शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य, शिल्प आदि से संबंधित हों। आपके आसपास मौजूद समुदाय की आवश्यकता के अनुसार इन कार्यक्रमों का संचालन हो।
इस प्रक्रिया में मित्रों के बीच निरन्तर सतत संवाद आवश्यक होगा। इस संवाद के माध्यम से मित्र अपने भीतर गहराइयों से देखते हुए अपने अनुभवों को साझा करेंगे। ताकि अनुभवों से सीखने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो। इसी दोरान हमें अपने पूर्वाग्रहों को पहचानना और उनसे मुक्त होना होगा। प्रारंभ में हमारा दृष्टिकोण हमारे पूर्वाग्रहों से प्रभावित होगा, लेकिन यदि हम इसे जागरूकता के साथ देखें, तो इससे बाहर निकल सकते हैं।
इस यात्रा में कई विचार और मत सामने आएँगे। सबसे पहले यह समझना होगा कि कौन-सा विचार है और कौन-सी केवल एक राय है। किसी भी निष्कर्ष को अंतिम सत्य मानने या नकारने से पूर्व कुछ समय उसके साथ रहना, उसका निरीक्षण करना, और आवश्यकता पड़ने पर उसे छोड़ने या उसके साथ रहने की सम्भावना को देखना। यह व्यक्तिगत रूप से भी करना होगा और सत्संग के माध्यम से सामूहिक पर भी।
निष्कर्ष
यह इकोसिस्टम हमें सतत मौलिकता की ओर प्रेरित करे, यही इसका उद्देश्य होना चाहिए।
अभी यह केवल एक व्यक्तिगत परिकल्पना है, लेकिन क्या इसे सामूहिक रूप दिया जा सकता है? इसके कई आयाम हो सकते हैं, जिन पर समूह में विचार-विमर्श आवश्यक है। क्या इस विचार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए कुछ मित्र तैयार हो सकते हैं?
अनिल मैखुरी
29 फरवरी, 2025
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