संवाद

अक्सर यह सुनने में आता है: “Why have a dialogue with like-minded people?” या “You are talking to the converted.” आदि। मुख्य बात यह कि आपको उन लोगों से संवाद करना चाहिए जिनके विचार आपसे अलग हों। यह भी एक विचार है। मैं इस विचार को पिछले कई दिनों से समझने का प्रयास कर रहा हूं।

कुछ विचार ऐसे होते हैं जो पहली बार सुनने में बेहद आकर्षक लगते हैं। लेकिन जब उन पर गहराई से विचार किया जाए, तो उनकी असल मंशा स्पष्ट होने लगती है। इसके अलावा, हमारी intuition (अंतर्ज्ञान) भी एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है, जो हमें आगाह करती है: यह सही लग रहा है, लेकिन कहीं कहीं कोई गड़बड़ है।

मैं यह स्पष्टता से नहीं कह सकता कि intuition और whims (सनक) में क्या फर्क है। लेकिन दोनों में बड़ा अंतर है, और कभी-कभी इनके बीच भ्रम भी हो सकता है। पर यदि अंतर्ज्ञान को सही पहचान लिया जाए, तो यह एक बेहद शक्तिशाली और उपयोगी साधन बन सकता है।

खैर, मुद्दे पर लौटते हैं। अक्सर जो लोग यह बात करते हैं कि हमें भिन्न विचारधारा वाले लोगों से संवाद करना चाहिए, मेरे अनुसार, उनकी सत्य (सनातन, eternal and perennial) की समझ स्पष्ट नहीं होती। वे विचार को ही सोचने की एकमात्र क्रिया मान बैठते हैं—चाहे अनजाने में ही सही।

यह अनजाने में इसलिए है क्योंकि उन्होंने स्वयं (या कहें self) में होने वाली विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं पर ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने thinking (सोचने) को केवल ideas (विचार) तक सीमित कर दिया है। ध्यान, मनन, अवलोकन, या सत्य को स्थिर होकर समझने जैसी प्रक्रियाओं को वे महत्व नहीं देते।

वे सब कुछ “विचार” में समेट लेते हैं, जबकि विचार के स्वरूप पर भी उन्होंने गंभीरता से ध्यान नहीं दिया है। इनके पास अक्सर vague (ढुलमुल) मान्यताएं होती हैं। इन्ही लोगों की अक्सर यह राय होती है कि अलग-अलग विचार रखने वाले लोगों को आपस में संवाद करना चाहिए। इसके पीछे संभवतः यह मान्यता रहती होगी इससे एक-दुसरे के विचारों को समझने का अवसर मिलेगा और इस तरह शायद कोई सहमति बन सकेगी या कोई नया विचार भी बन सकता है।

विचार को छोटा समझना गलत है। यह एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है, लेकिन इसकी उपयोगिता तभी है जब यह स्पष्ट हो कि:

  1. विचार क्या होता है?
  2. सत्य, इच्छा, मन करना/न करना, कल्पना, विश्लेषण इत्यादि सब अलग अलग क्रियाएं हैं।

यदि यह स्पष्टता हो, तो विचार एक प्रभावशाली उपकरण है। अन्यथा, विचार के नाम पर केवल भ्रम चलता रहेगा।

विचार या तो “करने” के लिए तो होता है या “जानने” के लिए। “करने” में विचार की भूमिका स्पष्ट होती है, ,ऐसा माना जा सकता है। “जानने” में सवाल उठता है: क्या जानना है?”

जानना अंततः “सत्य” का होगा या कुछ और? यह प्रश्न मैं उठा रहा हूं। इसे जो लोग जांचना चाहे जांचे। यदि यह प्रस्ताव ठीक लगे, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि विचार का उपयोग भी सत्य की खोज के लिए होना चाहिए।

अब सवाल आता है कि ऐसी चर्चा सबसे सार्थक किसके साथ हो सकती है? मेरे अनुसार, उनके साथ:

  1. जिनमें सत्य की स्पष्टता हो।
  2. जो विचार और मानसिक शक्तियों को भलीभांति समझते हों।
  3. जिनमें सत्य को पहचानने की गहरी उत्कंठा हो।

यदि ऐसे लोग आपस में संवाद करते हैं, तो वे असल में एक-दूसरे से नहीं, बल्कि अपने आप से बात कर रहे होते हैं—सत्य की खोज के उद्देश्य से। जो जिसको दिखाई दिया, उसे वह पूरी ईमानदारी से समूह में आहुति के रूप में रखता है। दूसरे भी वही करते हैं। यहां बहस की कोई जगह नहीं होती। संवाद का उद्देश्य केवल सत्य को उजागर करना होता है। दूसरा व्यक्ति मुझमें बस एक trigger (प्रेरणा) पैदा करता है। यही सही अर्थों में संवाद की प्रक्रिया है।

23 नवम्बर, 2024

पवन गुप्ता जी द्वारा WhatsApp group में की गयी पोस्ट का संपादित स्वरुप.


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