Sanaatan aur samayik

भारत में न्याय और सत्य की समझ और पश्चिम से आई आधुनिकता में न्याय और सत्य की समझ में बड़ा भेद है। और चूंकि हम सभी पढ़े-लिखों पर आधुनिक शिक्षा का चश्मा कमोबेश चढ़ा हुआ है इसलिए यह भेद जब तब हम भूल से जाते हैं। चश्मा ही नहीं यह तो अब हमारे DNA का हिस्सा है। और यही आज की सबसे बड़ी चुनौती है। समस्या जहां (समझ) से उत्पन्न होती है और जहां (समझ में) उसका समाधान है, वहीं गड़बड़ी भी है। Our mind is an amazing instrument. It sees, perceives, and interprets, analyses, plans – all in one. If there is fault in seeing/perceiving then the rest is only a consequence though our (stupid) arrogance tells us (actually assumes) otherwise. Modern education trains us to ignore the functioning of the mind, only focusing on a very minute quality of it called ‘intelligence’ (which is mostly a given (by the divine?) and no one has ‘done’ anything to enhance it). People strut around assuming they are ‘intelligent’, others hide behind ‘attitude’ to show they are ‘intelligent’, and majority harbours a grudge that they are not. This dis-ease is mostly a modern disease.

But I want to discuss the major difference between ‘Truth’ (सनातन) and ‘nyaya’ as understood in our civilization and as understood in the modernity imposed upon us. First of all there is a difference between ‘speaking truth’ (सच बोलना) and ‘Truth’ (सत्य)। सत्य और सत्य बोलने में फर्क है। “मैं झूठ बोलता हूँ” यह सत्य बोलना हो सकता है पर यह सनातन नहीं। “मनुष्य कभी कभी झूठ बोलते हैं” यह सनातन का वक्तव्य हो सकता है। सनातन सार्वभौमिक और सार्वजनिन होगा। Universal। सत्य बोलना या झूठ बोलना सामयिक घटना या सामयिक क्रिया है। क्रिया गतिशील है, बदलती रहती है। इसमे सनातन जैसा कुछ भी नहीं। यहाँ ‘होने’ और ‘करने’ का और ‘होने’ और ‘दिखने/दिखाने’ का फर्क महत्वपूर्ण हो जाता है। सनातन ‘होने’ में है। ‘करना’ और ‘दिखना/दिखाना’ सामयिक होता है – स्थिति/परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। भारतीयता में सनातन और सामयिक के बीच संबंध या यूं कहें ‘होने’ और ‘करने’/’दिखने’/’दिखाने’ में एक संबंध स्थापित किया गया लगता है जिसे कभी कर्तव्य, कभी मर्यादा, कभी परंपरा का नाम दिया गया होगा। करने/दिखने/दिखाने वाली दुनिया को सनातन के खूँटे से बांधा गया। इसे ‘स्वास्थ’ और ‘स्वाद’ इन दो पहलुओं से समझ सकते हैं। स्वास्थ – सनातन। ‘स्वाद’ – सामयिक। स्वाद को नकारा नहीं गया पर स्वास्थ के खूँटे से बांध कर स्वास्थ। आज की आधुनिकता में खूंटा गायब हो गया है। इसलिए करना और दिखना जो सामयिक है वह बेलगाम हो गया है।

भारतीयता में इसलिए ‘न्याय’, जो अक्सर ‘करने’ में हैं को सनातन के खूँटे से बांध कर और स्थिति/परिस्थिति को ध्यान में रख कर किया जाता रहा है। इसलिए कभी कभी झूठ बोल कर या जानते हुए भी चुप रह कर भी ‘न्याय’ किया जाता है। न्याय करने में हैं इसलिए संदर्भ यानि स्थिति परिस्थिति महत्वपूर्ण हो जाती हैं। एक ही क्रिया अलग अलग संदर्भों में न्यायोचित हो भी सकती हैं, नहीं भी। सामयिकता बदलती रहती है। सनातन नहीं। न्याय का आधार सनातन पर न्याय का करना संदर्भ के मुताबिक। आधुनिकता में यह बारीक समझ है ही नहीं। यह लचिलापन, यह नृत्य वहाँ नदारद है। आज की कानून व्यवस्था वैसी ही है।

आज का पुरुष-स्त्री के संबंध में भी यह बात आती है। आज की woke संस्कृति और हमारे यहाँ के अर्धनारीश्वर वाली बात में बड़ा फर्क है। woke पूरी तरह भावना (feeling या संवेदना) आधारित है। इसका कोई खूंटा नहीं। यह unbridled है – बेलगाम। परंतु भाव हमारे ‘देखने’, हमारी दृष्टि हमारे perception पर निर्भर करता है। जैसे हम देखते हैं या हमे दिखाई देता है वैसे ही हमारे भाव उठते हैं। feelings are dependent on perception। यह हम भूल जाते हैं। आधुनिकता में इसकी कोई समझ नहीं। हमारे यहाँ feelings की नहीं ‘त्व’ की बात है। ‘त्व’ यानि जो ‘है’ । potentiality है। पुरुष (शरीर) में स्त्रीत्व है। और स्त्री (शरीर) में पुरुषत्व है। यह सनातन है। इसको पहचाना गया है। और जिस प्रकार न्याय किया जाता है पर वह सनातन के खूँटे से बंधा हो कर स्थिति/परिस्थिति (सामयिकता) को ध्यान में रख किया जाता है, वही बात यहाँ भी लागू होती है। पुरुष पूरी तरह स्त्री के गुणों मे सराबोर हो सकता है यदि सामयिक स्थिति परिस्थिति वैसी हो – नाटक करते वक्त, नृत्य करते वक्त (कुछ उदाहरण), या कृष्ण भक्ति में लीन होते वक्त, और स्त्री विकराल रूप धरण कर सकती है (रण चंडी)। सामयिकता manifested को निर्धारित करेगी पर सनातन के खूँटे से बंधे हो कर। बेलगाम नहीं। और न ही सभी को “एक ही तराजू में तोलने” वाले सिद्धान्त में तोला जाएगा।

यह जो भी लिख रहा हूँ जो अपनी समझ में आया। कोई दावा नहीं है।