Sanātan Satya ke Sūtra

सनातन सत्य के सूत्र

हम अक्सर यह चर्चा करते हैं कि भारतीयता का आधार सनातन सत्य है। उस सत्य की झलक हमें हमारे सनातन साहित्य में सहज ही मिल जाती है। वैसे तो सम्पूर्ण साहित्य का अध्ययन इस आलोक में सहायक सिद्ध होता है, लेकिन हाल ही में कुछ ऐसे सूत्र मिले, जिन्हें सनातन सत्य का आधार बिंदु कह सकते हैं।

श्री शंकराचार्य कृत विवेकचूड़ामणि के 20वें श्लोक में कहा गया है—

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः।
सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः॥

अर्थात ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और समस्त जगत मिथ्या है। यदि मन, इस भाव पर सदा के लिए स्थिर हो जाए, तो उसे वास्तविक और अवास्तविक, सत्य और असत्य के बीच के भेद को देखने का ‘विवेक’ प्राप्त हो सकता है।

उपरोक्त क्रम में बृहदारण्यक उपनिषद का एक महावाक्य है—

“अहं ब्रह्मास्मि”

यह महावाक्य हमें बताता है कि आत्मा, ब्रह्म (अर्थात एकमात्र सत्य) का ही एक अंश मात्र है। और इस आत्मा के विषय में भगवान श्रीकृष्ण गीता के द्वितीय अध्याय (सांख्ययोग) के 24वें श्लोक में कहते हैं—

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥

अर्थात्, आत्मा – सदा नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है। इसे न कोई शस्त्र काट सकता है, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है, और न ही वायु सुखा सकती है।

उपरोक्त सूत्रों को समग्रता से देखने पर यह तात्पर्य निकलता है कि ब्रह्म का अंश रूप आत्मा जो हम सभी में समान रूप से विद्यमान है। वह सदा नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है। यही परम सत्य है। शेष सम्पूर्ण जगत मिथ्या या माया है।

यही वह विवेक है, जो मानस में “है” और “नहीं है” के बीच भेद को स्पष्ट करता है।

यही वह विवेक है, जो हमें वह आधार बिन्दु उपलब्ध कराता है, जिसके माध्यम से हम सनातन सत्य को जानने की दिशा में प्रयास प्रारम्भ कर सकते हैं।

यह विवेक केवल श्रद्धा के द्वारा हमारे मानस में स्थिर हो सकता है। “श्रद्धा” बुद्धि व तर्क से परे का विषय है, जिसे केवल भारतीय मानस में ही प्राप्त किया जा सकता है।

भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय (ज्ञान-कर्म-संन्यास योग) के 39वें श्लोक में कहा गया है—

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

अर्थात्, जो श्रद्धावान हैं, जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को संयमित कर लिया है, वे ही दिव्य ज्ञान को प्राप्त करते हैं। इस दिव्य ज्ञान के द्वारा वे शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त कर लेते हैं।

हाल ही में मुझे उपनिषदों पर व्याख्यान दे रही दिल्ली विश्वविद्यालय की एक वरिष्ठ प्रोफेसर की कक्षा में भाग लेने का अवसर मिला। वे पिछले लगभग तीस वर्षों से भारतीय दर्शन की शिक्षा दे रही हैं। कक्षा के दौरान उन्होंने कहा कि जब भी वे सनातन साहित्य के बारे में चर्चा करती हैं, तो उन्हें यह तथ्य हमेशा आश्चर्यचकित करता है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने इस अपार ज्ञान के दर्शन कैसे किए होंगे।

वह केवल कह नहीं रही थीं, बल्कि उनके सम्पूर्ण शारीरिक हाव-भाव से यह स्पष्ट दिख रहा था कि वे उस क्षण एक विशेष अनुभूति से गुजर रही थीं। उसी क्षण मुझे भी अनुभव हुआ कि यदि वास्तव में विवेकचूड़ामणि का 20वाँ श्लोक और भगवत गीता के द्वितीय अध्याय (सांख्ययोग) का 24वाँ श्लोक किसी के मानस में स्थिर हो जाए, तो उसकी वाणी से केवल सत्य प्रकट होगा और उसका जीवन सदेव के लिए ईश्वरमय हो जाएगा।

अनिल मैखुरी

09 मार्च, 2025


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