सनातन का अर्थ है “Eternal and Perennial Truth”— शाश्वत और सतत सत्य। कृष्णमूर्ति के शब्दों में, यह “What Is” है। It is a given. You can’t do anything about it. इसलिए इसमें तर्क नहीं है। यह तो बस है। जैसा है, वैसा है। इसे पहचानना होता है। समझने जैसा कुछ नहीं है। सिर्फ देखना होता है और पहचानना होता है।
तर्क (logic) हमेशा किसी आधार/आधारों पर खड़ा होता है और जरुरी नहीं कि तर्क लगाने वाला उन आधार/आधारों के प्रति सचेत हो। आधार axioms भी होते हैं जैसे ज्यामिति में। आधार, मान्यताएं भी हो सकती हैं।
मान्यताएं भी दो प्रकार की होती हैं – पहली वह जिन्हें व्यक्ति जानता है या जिनके प्रति वह सचेत है। दूसरी वह जिनके प्रति मानने वाला व्यक्ति अनिभिज्ञ है – जैसे बहुत सी जानकारियां जिन्हें अनजाने में ज्ञान मान लिया गया है। विज्ञान के नाम पर स्वीकार की गयी मान्यतायें इत्यादि।
तर्क (logic) हमेशा किसी आधार (premise) पर खड़ा होता है और सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ता है, जैसे कि ज्योमेट्री में axioms। उदाहरण के लिए:
- “A point has no height, length, or breadth”—यह एक axiom है।
- “A straight line is the shortest distance between two points”—यह भी एक axiom है।
इन पर कोई तर्क नहीं होता; इन्हें मानकर आगे बढ़ा जाता है। लेकिन ये सनातन नहीं हैं।
सनातन ऐसा सत्य है जिसे कोई भी व्यक्ति, किसी भी समय पहचान सकता है। इसे तर्क से नहीं, अनुभव से समझा जा सकता है। इसकी सबसे खूबसूरत बात यह है कि हर व्यक्ति के भीतर एक क्षमता (faculty) होती है, जो उसे यह विश्वास दिलाती है कि “ऐसा ही है,” और इसके लिए दूसरे से पूछने की ज़रूरत नहीं।
सनातन के कुछ प्रस्ताव
- गुरुत्वाकर्षण (Gravity): धरती पर ठोस और तरल पदार्थ स्वाभाविक रूप से धरती की ओर आकर्षित होते हैं। इसमें कोई तर्क नहीं है, यह बस “ऐसा ही है।”
- तैरने की क्षमता: हर स्वस्थ मानव तैर सकता है, चाहे उसे तैरना आता हो या न हो। यह एक स्वाभाविक क्षमता है।
- उड़ने की सीमा: बिना किसी यंत्र के, कोई मानव उड़ नहीं सकता।
- स्वास्थ्य की चाह: हर मानव स्वाभाविक रूप से स्वस्थ रहना चाहता है। यह उसकी आंतरिक प्रेरणा है।
- सम्मान की आवश्यकता: हर व्यक्ति सम्मान पाने की आकांक्षा रखता है।
अस्तित्व और सनातन का संबंध:
अस्तित्व के बाहर कुछ भी नहीं है। राक्षस और देवता, पाप और पुण्य, स्वप्न और यथार्थ—सब अस्तित्व के भीतर हैं। यहां तक कि हत्या और प्रेम भी। सवाल केवल इतना है कि “क्या सही है और क्या गलत?” यह समझ ही सनातन के मूल में है।
सनातन की जड़ें हैं। क्योंकि वह है। झूठ की जड़ें नहीं हैं। क्योंकि वह नहीं है। इसे तर्क से नहीं समझा जा सकता; इसे केवल देखा और अनुभव किया जा सकता है। यह अनुभव हमारे भीतर ही होता है।
अब विज्ञान इत्यादि से ऊटपटांग हरकते भी करवा सकता है। इसके उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं लगती। आण्विक हथियार।
सनातन में जड़ और चेतन दोनों का सामंजस्य देखा जा सकता है। चारों अवस्थाओं (ठोस, तरल, गैस, और प्लाज्मा) में हर इकाई अपनी व्यवस्था में संतुलित है, और यह सामंजस्य पूरे अस्तित्व में सहज रूप से देखा जा सकता है।
विज्ञान तब तक सार्थक है जब तक वह इस सनातन सामंजस्य के साथ बैठता है। लेकिन जब विज्ञान अपनी दिशा से भटकता है—जैसे आणविक हथियारों का निर्माण—तब वह अस्तित्व के इस संतुलन को बाधित करता है।
सनातन सत्य वह आधार है, जिससे हम सही और गलत को पहचान सकते हैं। यह हर व्यक्ति के अनुभव में निहित है। इसे तर्क या बाहरी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इसे केवल अपनी चेतना के माध्यम से देखा और अनुभव किया जा सकता है।
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