(To a question on WhatsApp about stark contradictions in what Osho says, for example that Krishna is great in one talk and Krishna is no good in another, Pawanji responded in the following manner. I thought it needed to be recorded as a blog post here.)
सत्य अनिर्वचनीय है, इसे भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता, यह हमारे यहां कहा जाता रहा है। भौतिक जगत को, भावनाओं को भी, एक हद तक बताया जा सकता है पर सत्य तो अनुभव की वस्तु है, उसे बताया नही जा सकता। संकेत दिए जा सकते हैं। पहली बात तो यह। सत्य की तरफ इशारा ही कर सकते हैं। फिर अनुभव होना और निष्कर्ष पर पहुंचना, ये दो बिल्कुल अलग अलग बातें हैं। सत्य का निष्कर्ष नहीं निकाला जाता । सत्य तो बस होता है।
तीन मुख्य प्रश्न है संसार में। १) क्या २)क्यों और ३) कैसे। “क्या” का उत्तर सत्य में है। सत्य यानि हमेशा एक जैसा – हर काल में और हरेक स्थान पर। समय और स्थान से निरपेक्ष। इसलिए उसे सनातन कहा जाता है। सत्य को पहचाना जा सकता है उसके बाद अनुभव।
“क्यों” दिमाग के दायरे में आने वाली वस्तु है। “क्यों” यानि कारण। कारण एक से अधिक होते हैं। पर बहुदा हम किसी एक या दो प्रमुख दिखने/लगने वाले कारणों को देखकर निष्कर्ष निकाल लेते हैं। कई बार, साइंस वालों को भी अपने बताए कारणों पर पुनर्विचार करना होता है। कहने का अर्थ, “क्यों” का उत्तर मैं उतनी गंभीरता से नहीं लेता। काम चल जाय उतना भर। कई बार बगैर “क्यों” के उत्तर के भी काम चलता है। हमारे लोक ज्ञान की परंपराओं में “क्यों” को बहुत महत्व नहीं दिया गया है। Observation और patterns को देख कर भी निष्कर्ष निकाल लेते थे लोग। अंदाजा लगा लेते थे – बारिश होगी की नही, मौसम कैसा रहेगा, कौन सा भोजन कब करना ठीक है, कब नहीं, कौन सी फसल किस दिन लगानी ठीक रहेगी, कब काटना है, अमावस्या, कृष्णपक्ष, पूर्णिमा, ग्रहण इत्यादि के हिसाब से। इसका लॉजिक अलग था जो पैटर्न पर और observation based था। कहने का तात्पर्य “क्यों” का उत्तर एक ही हो यह जरूरी नहीं। और निष्कर्ष की बात “क्यों” से जुड़ी है।
फिर “कैसे”। ” कैसे” का संबंध तो ‘करने’ से है। करना हमेशा ही स्थिति परिस्थिति यानि सामयिक स्थिति पर निर्भर करेगा।
सत्य सूक्ष्म होता है और स्वयं को ढूंढना पड़ता है। दूसरे के बताए से चलता नही – वह कोई काम का नहीं। “क्यों” और “कैसे” दूसरा बता सकता है। इसमें सामान्य लॉजिक की भूमिका है। इसलिए बहुत सी परंपराओं में “क्या” या सत्य को बताने के लिए paradox का सहारा लिया गया। Zen Buddhism में तो बहुत ही। हमारे यहां भी जैसे हम उलट बांसी के बारे में सुनते हैं। ओशो भी कुछ वैसे ही बात करते हैं। वह हमारे दिमाग को जड़ता से बाहर निकालने का प्रयास करते हैं। क्योंकि यह हमारा आधुनिक दिमाग ठस हो गया है, जड़ हो गया है। उसमे दुनिया भर की मान्यताएं भरी पड़ी हैं जो उसकी सोच, उसके तर्क, उसके निष्कर्षों को प्रभावित करती रहती हैं, पर हम उन मान्यताओं के प्रति बिल्कुल अनिभिज्ञ रहते हैं। ओशो की कोशिश है हम उनसे बाहर निकलें और एकदम innocent हो कर चीज़ों को देखें, समझें। सरन इसे noetic sensitivity कहते है जो हमने खो दी है। उसे जगाने की कोशिश होती है इन contradictory (लगने) वाली बातों से।
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