(Note: The following is extracted from a conversation on the ‘SIDH Discussion Forum’ WhatsApp group. Click here to join this group)
आधुनिकता को सिर्फ intellectually ही नही, उसके उन पक्षों को भी समझना जरूरी है, जिनसे हम एक आम आदमी को समझा सके, सचेत कर सके। इसमें हमे स्वयं ही काम करना होगा। इसमें यानि आधुनिकता में एक तो यही कि इसमें यह इंप्रेशन दिया गया है कि “सबका अपना अपना सच होता है”। इसका implication यह है कि सनातन की बात करना ही दुभर हो गया है। क्योंकि यदि सबका अपना अपना सच है तो कोई सनातन सत्य है ही नहीं, क्योंकि सनातन का अर्थ ही यह है कि “सबके लिए एक जैसा और सभी काल में एक जैसा”। दूसरी जरूरी बात जो मुझे लगती है वह है “व्यक्तिवाद” जो हरेक (हम सब भी उससे कमोबेश ग्रसित हैं) के अंदर तक घुस गया है। यह व्यक्तिवाद फिर अंदर बैठी एक बड़ी इच्छा “लोकेशना” से जुड़ गया है। इस बीमारी से बुद्धिजीवी, राजनीति वाले, एक्टिविस्ट, और आम आदमी सभी ग्रसित हैं। इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। आम आदमी पुत्रेष्णा और वित्तेष्णा में फंसा है और जो उससे ऊपर उठते है वे लोकेश्ना में फंस जाते हैं। यह रोग है और आधुनिकता ने इसे अपनी शक्ति बनाया है।
आधुनिकता को समाज रास नहीं आता। समाज का अर्थ ही है की वह बहुत हद तक स्वावलंबी होता है। और साथ ही भौतिक आवश्यकताएं समाज मे स्वतः ही नियंत्रित होती हैं क्योंकि समाज दिखावे को रोकता है, पसंद नही करता, खास उत्सवों के अलावा। और स्वावलंबी समाज राज्य को चुनौती देने की ताकत रखता है क्योंकि वह उस पर आश्रित नहीं होता। यह बात राज्य व्यवस्था को रास नहीं आती। दूसरी तरफ क्योंकि खपत पर अंकुश होता है इसलिए आधुनिक बाजार और तंत्र को भी यह रास नहीं आता। समाज में व्यक्तिवाद पनप नहीं सकता।
शिक्षा और मीडिया और आधुनिक लोकतंत्र और बाजार एवं अन्य सभी आधुनिक तंत्र, आधुनिक technology सभी समाज के विरोध में खड़ी है और व्यक्तिवाद को पोषित और पल्लवित करती हैं, महिमामंडन भी होता है।
और इस आधुनिकता की बात पर एक और बात कहने का मन है। आधुनिकता में अर्थ पर शब्द भारी हो गए है। Written text बोले हुए से ज्यादा भारी बना दिया गया है। इसमें भी सत्य को चोट पहुंची है भले ही सीधे सीधे नही पर पहुंची है। शब्द पत्थर की लकीर हो गए। गद्य की महत्ता बढ़ गई, पद्य पीछे छूट गया । हल्का हो गया। गद्य के शब्द पत्थर की लकीर की तरह होते है, भारी होते हैं और उनके अर्थ सब अपने अपने हिसाब से बगैर मेहनत किए निकाल लेते हैं, बगैर सनातन का खूंटा ढूंढे और उससे बांधे । क्योंकि अर्थ तो वास्तविकता का ही होगा न और वास्तविकता यानि सत्य सनातन। “कुछ भी” अर्थ नही चल सकता। पर मजा यह है कि चल रहा है। अटकलबाजी। पद्य में लिखने या बोलने वाले और सुनने और पढ़ने वाले को अपने अंदर प्रयास पूर्वक झांकना पड़ता है, कोशिश करनी पड़ती है (मैं हल्की फुल्की कविता या शायरी की बात नही कर रहा। तुलसी या मीरा इत्यादि का सोचिए) । इस अंदर टटोलने की प्रक्रिया में वास्तविकता और सनातन के दर्शन हो, ऐसी संभावना प्रगाढ़ होती है। पर आज कल की गंभीर चर्चाओं में और लिखे हुए में ऐसा लगता है की शब्द अर्थ पर भारी हैं। सरन साहेब के लिखे में अलग बात इसलिए होती है कि उनका गद्य भी पद्य की तरह लिखा गया है इसलिए हमे मेहनत करनी होती है। सिर्फ पढ़ने से काम नहीं चलता पर स्वयं भी प्रयत्न करना पड़ता है अर्थ तक पहुंचने के लिए।
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