राम को वनवास हो जाने पर कौशल्या भरत पर आरोप लगाती हैं कि तुने अपने भाई को वनवास भेजने और अयोध्या का राज हथियाने की सजिश की। इस पर भरत उस काल में निषिद्ध कर्मों का वर्णन यह कहते हुए करते हैं कि यदि उन्होंने ऐसी किसी भी साजिश में हिस्सा लिया होगा तो उन्हें इन सभी पापों का फल भोग्य होगा। भरत यहाँ कोई उपदेश नहीं दे रहे हैं, वह तो उस काल में किसी भी स्थिति में ना किये जाने वाले अर्थात अकल्पनीय कर्मां का वर्णन कर रहे हैं।
भरत के वचनः
जिसकी अनुमति से सत्पुरुषों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ आर्य श्री राम जी वन में गये हो,
– उस पापी की बुद्धि कभी गुरु से सीखे हुए व शास्त्रों में बताये गये मार्ग का अनुसरण करने वाली न हो।
– वह अत्यन्त पापियों व हीन जातियों का सेवक हो। सूर्य की ओर मुँह करके मलमूत्र का त्याग करे और सोयी हुई गौओं को लात से मारे (अर्थात् वह इन पाप कर्मो के दुष्परिणाम का भागी हो)।
– उसको वही पाप लगे, जो सेवक से भारी-भरकम काम कराकर उसे समुचित वेतन न देने वाले स्वामी को लगता है।
– उसको वही पाप लगे, जो समस्त प्राणियों का पुत्र की भाँति पालन करने वाले राजा से द्रोह करने वाले लोगों को लगता है।
– वह उसी अधर्म का भागी हो, जो प्रजा से उनकी आय का छठा भाग लेकर भी प्रजावर्ग की रक्षा न करने वाले राजा को प्राप्त होता है।
– उसे वही पाप लगे, जो यज्ञ में कष्ट सहने वाले ऋषि को दक्षिणा देने की प्रतिज्ञा करके उन्हें इनकार कर देने वाले लोगों को लगता है।
– वह दुष्टात्मा, बुद्धिमान् गुरु के द्वारा यत्रपूर्वक दिये गये शास्त्र के सूक्ष्म विषय के उपदेश को भुला दे।
– वह पापी मनुष्य गौओं को पैरों से स्पर्श करे, गुरुजनों की निन्दा करे तथा मित्र के प्रति अत्यन्त द्रोह करे।
– वह दुष्टात्मा गुप्त रखने के विश्वास पर एकान्त में कहे हुए किसी के दोष को दूसरों पर प्रकट कर दे।
– वह मनुष्य उपकार ना करने वाला, कृतघ्न, सत्पुरुषों द्वारा परित्यक्त, निर्लज्ज और जगत् में सबके द्वेष का पात्र हो।
– वह अपने घर में पुत्रों, दासों और भाइयों से घिरा रहकर भी अकेले ही मिष्टान भोजन करने के पाप का भागी हो।
– राजा, स्त्री, बालक और वृद्धों का वध करने तथा भाईयों का त्याग करने वाले को जो पाप लगता है वह उसको लगे।
– वह सदैव लाह, मधु, मांस, लोहा और विष आदि निषिद्ध वस्तुओं को बेचकर कमाये हुए धन से अपने परिवार का पालन-पोषण करें।
– वह शत्रुओं से भय खाकर युद्ध भुमि से पीठ दिखाकर भागते हुए मारा जाये।
– वह फटे-पुराने, मैले-कुचले वस्त्रों से अपने शरीर को ढककर हाथ में खप्पर ले भीख माँगता हुआ उन्मत्त की भाँति पृथ्वी पर घूमता फिरे।
– वह काम क्रोध के वशीभूत होकर सदा ही मद्यपान, स्त्री-समागम और द्यूतक्रीड़ा में आसक्त रहे।
– उसका मन कभी धर्म में न लगे, वह अधर्म का ही सेवन करे और अपात्र को धन दान करे।
– उसे वही पाप लगे जो संध्या में सोते हुए पुरुष को प्राप्त होता है। आग लगाने वाले मनुष्य को लगता है। मित्रदोह करने वाले को लगता है।
– वह देवताओं, पित्रों, और माता पिता की सेवा कभी ना कर सके।
– वह पापात्मा पुरुष चुगला, अपवित्र तथा राजा से भयभीत रहकर सदा छल कपट में ही रचा-पचा रहे।
– उसे वही पाप लगे जो पानी को गन्दा करने वाले व दूसरों को जहर देने वाले को लगता है।
– उसे वही पाप लगे जो पानी होते हुए भी प्यासे को पानी से वंचित करने वाले को लगता है।
– उसे वही पाप लगे जो परस्पर झगड़ते हुए मनुष्यों मे से किसी एक के प्रति पक्षपात रखकर मार्ग में खड़ा हो उनका झगड़ा देखने वाले कलह प्रिय मनुष्य को लगता है।
The Ramayan Series: Part 2
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2 responses to “The Ramayan Series: Part 2”
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कौशल्या का आरोप लगाना मानस में कहीं नहीं लिखा हुआ है। भारत स्वयं ही अपने इस साजिश में शामिल ना होने का स्पष्टीकरण दे रहे थे। कृपया इस इसे सुधार दिया जाए।
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प्रभास जी सादर प्रणाम.
मैंने उक्त विश्लेषण बाल्मीकि रामायण के निम्न श्लोक को पढ़ कर किया है. मानस में उक्त श्लोक का विवरण नहीं है यह आप सही ही कह रहे हैं.
इदं ते राज्यकामस्य राज्यं प्राप्तमकण्टकम् ।
सम्प्राप्तं बत कैकेय्या शीघ्रं क्रूरेण कर्मणा ॥ ११ ॥
‘बेटा ! तुम राज्य चाहते थे न ? सो यह निष्कण्टक राज्य तुम्हें प्राप्त हो गया; किंतु खेद यही है कि कैकेयी ने जल्दी के कारण बड़े क्रूर कर्म के द्वारा इसे पाया है ॥ ११ ॥आर्ये कस्मादजानन्तं गर्हसे मामकल्मषम् ।
विपुलां च मम प्रीतिं स्थितां जानासि राघवे ॥ २० ॥
‘आर्ये! यहाँ जो कुछ हुआ है, इसकी मुझे बिलकुल जानकारी नहीं थी। मैं सर्वथा निरपराध हूँ, तो भी आप क्यों मुझे दोष दे रही हैं? आप तो जानती हैं कि श्रीरघुनाथजी में मेरा कितना प्रगाढ़ प्रेम है ॥ २० ॥
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