“Who am I?” and “Fundamental Virtues and Vices”

मैं कौन हूँ’ एवं ‘मौलिक गुण व अवगुण’

‘मैं कौन हूँ’ इस प्रश्न से हर कोई कभी न कभी जूझता ही है। इसी क्रम में एक और प्रश्न उभरा कि ‘वह कौन से मौलिक गुण या अवगुण हैं जो मैं अपने साथ पिछले जन्म से लेकर आया हूँ’। ये सवाल गहरे हैं और इन्हें आसानी से हल नहीं किया जा सकता, लेकिन जब हम इन पर गंभीरता से सोचते हैं, तो कुछ उत्तर मिलने लगते हैं। हालांकि यह प्रारंभिक स्तर है, इसलिए किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय इसे समझने का प्रयास किया जा रहा है।

आज हम जो भी हैं, उसका आधार क्या है? अपने परिवार, समाज, जाति, धर्म, और आसपास के वातावरण आदि का प्रभाव हम पर स्पष्ट दिखता है। ये सभी प्रभाव हमारे होने का हिस्सा बन गये हैं। इनमें हमारा कोई विशेष योगदान नहीं है। इनमें से कुछ प्रभाव तो इतने गहरे हैं कि वे हमारे गुणसूत्रों का ही हिस्सा बन गए हैं, अर्थात वे जन्म से ही हमसे जुड़े हैं। जैसे एक व्यापारी के बेटे में व्यापार के गुण होना या कलाकार के बच्चे में कला की समझ। लेकिन ये केवल बाहरी प्रभाव हैं। हालाँकि, इसमें काफी अपवाद भी होते हैं, लेकिन मोटे तौर पर यही देखा जाता है।

अब, अगर मैं खुद को देखूँ, तो पाता हूँ कि मेरे व्यक्तित्व पर मेरे माता-पिता, मेरा पहाड़ी क्षेत्र, हिंदू धर्म, ब्राह्मण जाति, और शिक्षा का प्रभाव है। मेरा बचपन मसूरी में बीता, जिससे भी मेरे स्वभाव पर असर पड़ा है। जो भी मैंने जीवन में किया, उसकी भी एक भूमिका है। इन सभी बाहरी कारणों का कुछ न कुछ अंश मुझमें हैं, और उन सबसे मिलकर मैं बना हूँ।

इन सबके बावजूद, मेरे भीतर कुछ है जो ‘मैं’ हूँ। यह जो ‘मैं’ हूँ, उसके कुछ गुण और अवगुण हैं। ये गुण/अवगुण मेरे परिवार के किसी अन्य सदस्य के नहीं हैं, न ही मेरे संप्रदाय, जाति, या भौगोलिक क्षेत्र में सामान्यतः ये देखे जाते हैं। लेकिन मैं इन्हें अपने भीतर देखता हूँ। मेरे कुछ बहुत निकटवर्ती लोग भी इनमें से कुछ गुण/अवगुण मुझमें देखते होंगे। इनमें से कुछ गुण समय के साथ परिवर्तित भी होते रहते हैं। इसके बावजूद भी कुछ ऐसा है जो परिवर्तित नहीं होता और मुझमें सतत मौजूद रहता है। जो मुझे विशिष्ट बनाता हैं, मुझे “मैं” बनाता है।

ये गुण/अवगुण सभी के भीतर हैं, इसलिए आपके भीतर भी हैं। यह हमारा डिज़ाइन है। जैसे ‘हमारा चेहरा’ और बाकी सारी दुनिया के चेहरे – इनमें कोई भिन्नता है? नहीं! और है भी! वही माथा है, वही दो आंखें हैं, नाक है, मुंह है, गाल हैं आदि आदि। कुछ भी तो अलग नहीं है, लेकिन फिर भी हम अपने चेहरे से ही पहचाने जाते हैं, क्योंकि वह सबसे अलग है। कोई भिन्नता नहीं है, लेकिन फिर भी सबसे अलग है। ऐसे ही हम भी हैं, कोई भिन्नता नहीं है, फिर भी सबसे अलग हैं। इसी तरह, हम सभी इस पूरी मानवता का हिस्सा भी हैं और हममें एक विशेषता भी है। यही विशेषता “मैं” हूँ, और यही वे गुण/अवगुण हैं जो मेरे साथ पिछले जन्म से आए होंगे, और शायद अगले जन्म में भी जाएंगे।

हालांकि मुझे पिछले जन्म का कोई अनुभव नहीं है, लेकिन मैं अपने अंदर कुछ ऐसे गुण/अवगुण देखता हूँ, जिनका स्रोत मुझे इस जीवन में नहीं दिखता। इसलिए मैं उन्हें पिछले जन्म से जोड़ दे रहा हूँ। यह सिर्फ एक विश्वास है, अनुभव नहीं। संभवत: सभी कुछ अनुभव में आ भी नहीं सकता।

बहुत बारीकी से और ईमानदारी से देखने का प्रयास कीजिए, आपको ‘अपना होना’ (beingness) दिखने लगेगा। यह ‘होना’ किसी भी परिस्थिति से प्रभावित या प्रेरित नहीं होता है। यह बस आप हैं, हमेशा से। यह आपके होने का हिस्सा है, चाहे इस जन्म से हो या पूर्व जन्म से।

हम इन गुणों/अवगुणों को थोड़ी सजगता के साथ शायद देख सकते हैं, लेकिन यदि हम चाहें कि इन्हें बदल दें, तो वह संभवतः संभव नहीं है। यह हमारे होने का आधार हैं—अच्छे या बुरे—लेकिन यही है। जीवन में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जब हम किसी अन्य से बहुत प्रेरित या प्रभावित हो जाते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं। यह संभव नहीं है कि आप चाहें और कुछ भी बन जाएं। आप हमेशा आप ही रहते हैं। इसे स्वीकार करने से एक आंतरिक मजबूती और स्थिरता आती है।

हमारी जीवन यात्रा भी इन्हीं मौलिक गुणों और अवगुणों से तय होती होगी। यही कारण हैं कि हम कभी सही और कभी गलत निर्णय लेते हैं। हमारे मन के जिस हिस्से में ये गुण/अवगुण होते हैं, वहाँ तक हमारी सीधी पहुँच नहीं होती।

लेकिन ये गुण/अवगुण परिवर्तित होते हैं। लेकिन यह अपने आप होता है—हमारे करने से नहीं। शायद अध्ययन और साधना से बदलाव आ सकता है, जैसे बुद्ध, वाल्मीकि आदि के जीवन में हुआ। लेकिन उनके मौलिक स्वभाव में भी कुछ गुण/अवगुण रहे होंगे, और जब विशेष परिस्थितियाँ उनके जीवन में आईं, तो वे बदल गए। यही परिस्थितियाँ अन्य कई लोगों के जीवन में भी आई होंगी, लेकिन वे नहीं बदले।

‘कर्म’ संभवतः इस परिवर्तन की कुंजी है। यदि मैं अपने मौलिक गुणों या अवगुणों को सही से देख पा रहा हूँ, यानी खुद को थोड़ा समझ पा रहा हूँ। उसे ईमानदारी से स्वीकार कर पा रहा हूँ, तो यह दृष्टा भाव है। यदि इसके साथ ईमानदारी (Authenticity) भी है, तो यह आपके कर्मों में फलित होती दिखेगी। इसी प्रक्रिया से हमारे मौलिक गुण बढ़ते हैं और अवगुण कम होते हैं। एक जीवन में यह देखना कि आपके कितने गुण बढे और कितने अवगुण कम हुए—शायद यही उस जीवन का मूल्यांकन भी है।

इसमें यह प्रश्न भी उठेगा कि ‘कर्म’ क्या हैं? इस पर अगले आलेख में चर्चा करेंगे।

(उपरोक्त आलेख नितांत व्यक्तिगत विचार हैं। इसमें निष्कर्ष जैसा कुछ नहीं है। यह सत्य का प्रस्ताव भी नहीं है। मुझे आज ऐसा दिखा है। आपके सुझाव, टिप्पणी या मार्गदर्शन का हृदय से स्वागत है, आग्रह मात्र यह है कि वह आपके अपने अनुभव या दृष्टिकोण पर आधारित हों, जिससे मौलिक चर्चा हो सके और हम सभी को लाभ मिले।)

अनिल मैखुरी
12
अक्टूबर, 2024


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