Anubhav Se Judna

शब्द एक ध्वनि है। लिखें तो एक आकृति है। अस्तित्व में अनेक ध्वनियाँ हैं। कोई भी आवाज़ एक ध्वनि ही तो है। इसी प्रकार बहुत सी आकृतियाँ होती हैं। पर कुछ एक ही ध्वनियों का कोई खास अर्थ होता है। अनेक ध्वनियों का कोई अर्थ नहीं होता। इसी प्रकार आकृतियाँ। जो ध्वनियाँ और आकृतियाँ किसी अर्थ विशेष को इंगित करती हों, उन्हे हम शब्द कहते हैं। सभी धावनियों को नहीं।

अर्थ हमारे अनुभव में होता है, जिसे कालांतर में मनुष्य ने (विभिन्न भाषाओं में), सम्प्रेषण करने के लिए अलग अलग नाम दिये। इन्ही नामों को, इसी नामकरण को, हम शब्द कहते हैं। कहने का तात्पर्य है कि अर्थ पहले हमारे अनुभव में आया और फिर उसका नामकरण हुआ। बच्चे को प्यास लगती है, या भूख लगती है। बच्चे को प्यास या भूख का अनुभव होता है और फिर किन्ही वस्तुओं से वह अनुभव बदल जाता है (उसकी प्यास और भूख शांत हो जाती है)। यह सब, हर बच्चे के अनुभव में होते रहता है। इन बार बार होने वाले नैसर्गिक अनुभवों को, बच्चा अपने वातावरण से (माँ से, पिता से, भाई बहनों के द्वारा) विशेष नामों के साथ (ध्वनियों के साथ) जोड़ने लगता है। उन दिये हुए नामों के और उन अनुभवों के बीच स्वतः ही एक संबंध स्थापित करने लगता है। association होने लगता है – अनुभव और उन वस्तुओं और उनको दिये नामों के बीच। धीरी धीरे अनुभवों को (भूख, प्यास, तृप्ति, भूख प्यास का शांत होना इत्यादि) और जिन वस्तुओं से (पानी, दूध, भोजन, माँ, बाप इत्यादि) अनुभवों में परिवर्तन होते हैं, इन सबको नाम मिलने लगते हैं। तो बच्चे की नैसर्गिक शिक्षा का क्रम – पहले अनुभव फिर उसके नाम – अनुभव, अर्थ फिर शब्द, होता है। पहले अर्थ और फिर शब्द। सभी बच्चे अपनी बोली-भाषा इसी प्रकार सीखते हैं।

आधुनिक स्कूलों की पढ़ाई की दिशा ठीक इसके विपरीत – यानि शब्द से अर्थ की ओर होने लगती है। यानि एक ऐसी चीज़ जिससे बच्चा अनिभिज्ञ है (शब्द) से शुरुआत करके, उसे अर्थ (जिसका संभवतः उसे अनुभव हो गया है, शायद नहीं) तक ले जाने का प्रयास आधुनिक शिक्षा में होता है। आधुनिक पढ़ाई-लिखाई में, सिर्फ भाषा ही नहीं, अन्य विषयों में पढ़ने का क्रम भी लगभग ऐसा ही है। क्रम यही है। यह एक बात है। पर जो इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि हमारे शिक्षकों का हमारे अंदर होने वाली नैसर्गिक प्रक्रियाओं का भान भी अक्सर नहीं होता, न ही उन्हे ‘शब्द एक संकेत है और अर्थ का संबंध अनुभव से है’, इसका महत्व पता होता है। वे तो शब्द और अर्थ के बीच कोई भेद ही नहीं करते। इसलिए वे इन महत्वपूर्ण मुद्दो की तरफ ध्यानाकर्षित ही नहीं कर पाते हैं। तो विद्यार्थी शब्द और अर्थ में कभी भेद ही नहीं करते और न ही यह जान पाते हैं की अर्थ एक वास्तविकता (अनुभव) का होता है।

अर्थ पहले है, फिर शब्द। यह बात स्पष्ट होना बहुत आवश्यक है। शब्द नैसर्गिक नहीं है। वे (अलग-अलग भाषाई संसार में) धीरे-धीरे विकसित हुए हैं। अनुभव पहले हैं, अर्थ का अनुभव होता है। शब्द उसके बाद दिये गए। अनुभव है, अर्थ है। शब्द दिये गए। अर्थ स्थाई है, सनातन है। इनका अनुभव होता है/ करना पड़ता है। शिक्षा के संदर्भ में ध्यान देने की बात इसीलिए ज़रूरी है। अनुभव करने के लिए ध्यान देना आवश्यक है। शिक्षक शब्दों द्वारा, संकेतों द्वारा, विभिन्न प्रयासों द्वारा, उदाहरणों के माध्यम से, कहानियों के माध्यम से, विद्यार्थी का ध्यान उस ओर ले जाने का प्रयास करता है जहां उसे उस वास्तविकता का, अर्थ का, अनुभव हो जाय। ध्यान देने की बात यहीं आती है। पर आधुनिक शिक्षा का जो माहौल है उसमें इनकी समझ भी नदारद है, ध्यान देने की बात तो दूर।

अर्थ हैं। शब्द दिये गए हैं। अलग अलग भाषा में (अस्तित्व में) एक ही शब्द के अलग अलग अर्थ दिये गए।

[नोट: किसी किसी भाषाई संसार के लोगों के अनुभव में कई बातें नहीं आई, या वे अनुभव उन्हे बहुत काम के या उपयोगी नहीं लगे, वह अलग मुद्दा है। इसके उदाहरण हमे स्थूल रूप से प्रयास करने पर मिल जाते हैं। जैसे राजस्थान की बोलियों में अलग अलग प्रकार के बादलों के अलग अलग नाम हैं, या सफ़ेद रंग में भी अलग अलग बारीक भेद किए गए हैं (दूध जैसा सफ़ेद, मोती जैसा सफ़ेद इत्यादि)। इस प्रकार के भेद हर जगह नहीं किए गए।]

अर्थ निश्चित है, जिसका संबंध नैसर्गिक वास्तविकता से है। अर्थ का अनुभव करना होता है। अनुभव की प्रक्रिया स्वयं के अंदर होती है। बाहरी प्रयास सिर्फ उस प्रक्रिया में सहायक हो सकते हैं, लेकिन सुनिश्चित नहीं कर सकते। इससे एक बात साफ होती है कि संप्रेषणा दोहरी प्रक्रिया है। बोलने / लिखने वाला शब्द के माध्यम से, अर्थ को संप्रेषित करने का प्रयास करता है। सुनने / पढ़ने वाला उस शब्द से अर्थ को (अपने अंदर) समझने का प्रयास करता है। ये दोनों बिलकुल अलग अलग प्रक्रियाएं हैं जहां बोलने / लिखने वाला और सुनने / पढ़ने वाला दोनों की अपनी अपनी अलग-अलग पर समान जिम्मेदारी होती है। अर्थ को समझने का प्रयास, अपने अनुभव से जोड़ने की प्रक्रिया ही है। अनुभव से जोड़ना एक बात है। और सुने हुए अर्थ या शब्दकोष से पढे हुए अर्थ को अर्थ मान लेना बिलकुल अलग बात है। आज यही हो रहा है। यही प्रचालन में है और इसके लिए आधुनिक शिक्षा जिम्मेदार है। इन दोनों प्रयासों की दिशा अलग है। हम थोड़ा भी ध्यान देंगे तो हमे यह स्पष्ट होगा कि आजकल सामान्यतः क्या हो रहा है। अर्थ को माना जा रहा है, जाना नहीं जा रहा, अनुभव नहीं किया जा रहा। जब अर्थ को माना जाता है तो स्वाभाविक है कि सबके अर्थ (थोड़े थोड़े ही सही) भिन्न भिन्न होते हैं। भाषा का, शब्द का संबंध मनुष्य के अनुभव से है, इसे लगभग भुला ही दिया गया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हम एक काल्पनिक संसार में रहने लगे है। माने हुए संसार में, अपनी अपनी conditioning के अनुसार, अपनी अपनी गहरी और अनदेखी मान्यता के अनुसार।

हमारी शिक्षा ने हमें एक गहरी conditioning से ग्रसित कर दिया है। हमने मान लिया है कि अर्थ एक मानने वाली वस्तु है। जबकि वास्तविकता यह है कि शब्द मानने वाली वस्तु है और अर्थ निश्चित है जिसे अनुभव करना होता है, जानना होता है। बिलकुल उल्टा हो गया है। इसलिए हम सब शब्दजीवी हो गए हैं। शब्द को पकड़ कर बैठ गए हैं।

ध्यान देंगे तो दिखाई देगा कि वास्तविकतायें हैं। और उनके अर्थ अस्तित्व में हैं। यह “है” शब्द महतवापपूर्ण है। “ऐसा ही है”। अर्थ में एक। जैसे सही एक ही होता है। जैसे दो और दो चार सही है। बाकि सारे उत्तर गलत। सही में एक, गलतियाँ अनेक। वैसे ही अर्थ एक ही है। भले ही उन्हे कुछ भी माना जा सकता है। पर जब अनुभव होगा तो एक जैसा ही होगा। जैसे सभी की प्यास, भूख का अनुभव एक ही है।

गहरी conditioning की वजह से हम, शब्दों से परिचय होते ही अर्थ को मानने लगते हैं। चूंकि हमें यह मालूम ही नहीं होता कि अर्थ का अनुभव किया जा सकता है, उसका प्रयास ही नहीं होता। हमारा दिमाग ऐसे ही बना है – वह जो मान लेता है उसी के अनुसार उसकी आगे की प्रक्रियाएं होने लगती हैं। यदि उसने मान लिया कि मैं जानता हूँ, तो जानने का काम आगे नहीं बढ़ेगा। यदि वह मानता है कि मैं मान रहा हूँ और अभी जानना शेष है तो जानने का रास्ता खुला रहता है। इसलिए यदि शब्दों से इंगित अर्थों को हम मान लेते हैं, बगैर उनका अनुभव किए तो उनका अनुभव करना संभव नहीं रहता। परंतु यदि हम अपने अंदर इस बात को सुनिश्चित करें कि अस्तित्व में वास्तविकतायें हैं, उनके अर्थ हैं, जिनका अनुभव किया जा सकता है तो फिर हम वह प्रयास करते रहेंगे जब तक हमे अनुभव न हो जाय। और सबसे बड़ी बात सत्य का (अर्थ का) जब हमें साक्षातकार होता है तो हमारे ही अंदर से वह सहज स्वीकार्य होता है और यह विश्वास साथ साथ आता है कि दुनिया का हर व्यक्ति को जब इस अर्थ का साक्षात्कार होगा, ऐसा ही होगा। कुछ वैसा ही कि जब भूख और प्यास का अनुभव होता है तो हमें साथ साथ यह भी विश्वास होता है कि यही अनुभव सबको भूख और प्यास लगने पर होता है। इसे ही सत्य या सनातन कहा जा रहा है। यदि यह एक बात पर हम टिक जाय तो हमारा अर्थ को अनुभव करने का रास्ता खुला रहता है वरना वह बंद हो जाता है।

विचार सबके अलग अलग हो सकते हैं। सब अपनी अपनी राय रख सकते हैं कुछ वैसे ही जैसे सबकी अपनी अपनी पसंद होती है। परंतु सत्य, सनातन तो एक ही है। इसमें व्यक्तिवाद नहीं चलता। सत्य, सनातन एक है इसीलिए हम एक दूसरे से थोड़ा बहुत ही सही, आधा-अधूरा ही सही, सम्प्रेषण कर पाते हैं। जो वस्तुएँ इंद्रिय सापेक्ष हैं, उनमे समस्या कम है, परंतु ढेर सारे शब्द जो इंद्रिय सापेक्ष नहीं हैं, उनमे समस्या ही समस्या है। क्रिया शब्दों में भी समस्या नहीं के बराबर है क्योंकि वे इंद्रिय सापेक्ष हैं। परंतु संज्ञाओं में समस्या आती है। अब वे शब्द जो इंद्रिय सापेक्ष नहीं पर जिनका मनुष्य जीवन से अटूट संबंध है जैसे सम्मान, विश्वास, प्रेम, स्वतन्त्रता, स्वराज, आत्मनिर्भरता, इत्यादि इनके अर्थ को अनुभव किए बगैर, माने हुए अर्थों में, इनका इस्तेमाल हम करते रहते हैं और इसलिए इनमें समस्या आती है। जैसे स्वतन्त्रता और फ़्रीडम एक हो जाता है। जबकि स्वतन्त्रता एक प्रकार की आत्म निर्भरता है जिसकी बुनियाद जिम्मेदारी पर खड़ी है और फ़्रीडम मनमर्जी है जिसकी बुनियाद अधिकार पर और स्वछंदता पर खड़ी है। दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क है। परंतु क्योंकि हमें अर्थ का अनुभव करना होता है और वही सत्य है, इस बात से अनिभिज्ञ रहते हैं, इसलिए इन संज्ञा शब्दों को अक्सर क्रिया के रूप में देखने लगते हैं। जैसे सम्मान को पाँव वगैरह छूने में। या प्रेम को सेक्स में।

प्रोफेसर अवध किशोर सरन इस स्थिति को अत्यंत दयनीय कहते हैं जहां आज का व्यक्ति अपने ही अनुभव से पूरी तरह विलग हो गया है, कट गया है। इस स्थिति में वह पूरी तरह पर-नियंत्रित हो गया है – अनजान दूसरे (unknown other) के हाथ की कठपुतली। उसके सारे निर्णयों का आधार, उधार में ली जानकारी, शब्दों पर थोपे हुए अर्थ, पर आश्रित हो गई है। नैसर्गिक अर्थ, सनातन जो है, को भूल कर हम थोपे हुए अर्थों की दुनिया से संचालित हो रहे है। फ़्रीडम, राइट और equality – आज की दुनिया के मूल मंत्र में, कितनी सच्चाई है, इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है।


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