TATTVA BODHA – 5

17. जगत् (विश्व)

अब तक आत्मा या स्व को नकारात्मक (यह नहीं है) तथा सकारात्मक (यह है) दोनों प्रकार से परिभाषित किया गया है। अब अगला प्रश्न उठता है—मेरे चारों ओर जो वस्तुगत जगत् (विश्व) है, उसका क्या? ‘मैं’ और जगत् के बीच क्या संबंध है? जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई?

अब आचार्य जगत् की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं।

17. अथ चतुर्विंशतितत्त्वोत्पत्तिप्रकारं वक्ष्यामः।

अब हम २४ तत्त्वों की उत्पत्ति की प्रक्रिया का वर्णन करेंगे।

18. ब्रह्माश्रया सत्त्व-रजस्-तमोगुणात्मिका माया अस्ति।

माया, जो ब्रह्म पर आश्रित है, सत्त्व, रजस् और तमस् – इन तीन गुणों के स्वरूप वाली है।

18.1 ब्रह्मन्

“ब्रह्मन्” शब्द “बृह्” धातु से बना है जिसका अर्थ है “वृद्धि करना”। इसी धातु से “ब्रह्मन्” संज्ञा बनी है और यह नपुंसकलिंग है। अतः ब्रह्मन् का अर्थ है “स्वयं में बड़प्पन” और इसका द्योतक है सबसे बड़ा या अनन्त। यह स्थान और काल जैसे सापेक्ष विचारों से भी परे है (जो कि मन के ही उत्पाद हैं) और यही इस सम्पूर्ण जगत का कारण है।

किन्तु, जगत अथवा यह विषय-प्रधान संसार तो स्थान और काल के अधीन है क्योंकि यह समय और स्थान के अनुसार परिवर्तनशील है। तब प्रश्न उठता है कि यह “सीमित” संसार उस “अनन्त” या “असीम” ब्रह्मन् से कैसे उत्पन्न हुआ? अनन्त कभी सीमित में परिवर्तित नहीं हो सकता और न ही अपरिवर्तनशील का कोई अंश परिवर्तनशील बन सकता है।

अतः यह परिवर्तनशील जगत ब्रह्मन् से भिन्न होना चाहिए – और यहीं पर एक गूढ़ रहस्य सामने आता है।

18.2 माया

किसी वस्तु की उत्पत्ति दो प्रकार से हो सकती है—
(१) या तो उस द्रव्य में परिवर्तन अथवा विकार के रूप में जिससे वह बनी है, अथवा
(२) एक भूल के रूप में जिसमें वास्तविक वस्तु को किसी और रूप में देख लिया जाता है।

उदाहरण के लिए, एक सुनहरे आभूषण की रचना सोने में हुए परिवर्तन से होती है। यह पहली प्रकार की उत्पत्ति है। लेकिन साँप-रस्सी के उदाहरण में, रस्सी को साँप समझ लिया जाता है, यद्यपि रस्सी में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं हुआ। यह दूसरी प्रकार की उत्पत्ति है।

जगत की रचना इसी दूसरे प्रकार की है—यानी भूल या भ्रांति से। यही माया है। यही कारण है कि जिन हिन्दू देवताओं को सृष्टिकर्ता की शक्ति दी गई है, वे सदा शक्ति (शक्ति-स्वरूपा देवी) से सम्बद्ध दिखाए जाते हैं। इस प्रकार शिव पार्वती से और विष्णु लक्ष्मी से जुड़े हुए हैं। यहाँ “भगवान की पत्नी” वास्तव में उनसे अलग कोई सत्ता नहीं है, बल्कि भगवान का माया-स्वरूप ही है।

व्यक्तिगत आत्मा या चेतना, जो विभिन्न शरीरों और कोशों के साथ अपनी पहचान बना लेती है, उसे जीव कहा जाता है। अपने वास्तविक स्वरूप में जीव और ईश्वर दोनों एक ही हैं। फर्क इतना है कि जीव माया के अधीन है जबकि ईश्वर माया का नियंता है। जीव के मन की शक्ति, जो स्वप्न में एक वस्तुगत जगत रच सकती है, ईश्वर की उस माया-शक्ति के समान है जिसके द्वारा वह सम्पूर्ण जगत की रचना करता है।

माया की उत्पत्ति के तीन पहलू

माया की सृष्टि के तीन पहलू हैं—
ज्ञान (ज्ञान : बुद्धि का कार्य), क्रिया (क्रिया : प्राण का कार्य) और जड़ (जड़ पदार्थ)।

ये तीनों पहलू जगत की सम्पूर्ण सृष्टि के लिए उत्तरदायी हैं। ये अभिव्यक्तियाँ (कार्य) माया के उन तीन पहलुओं के प्रभाव हैं, जो इनके कारण (कारण) रूप में विद्यमान हैं।

माया के तीन स्वभाव और उनकी अभिव्यक्तियाँ इस प्रकार हैं—

कार्य (Effect)कारण (Cause)
ज्ञान (Knowledge)सत्त्व (Sattva)
क्रिया (Activity)रजस् (Rajas)
जड़ता (Inertness)तमस् (Tamas)

सृष्टि के इन तीन पहलुओं के कारण माया को त्रिगुणात्मिका अथवा सत्त्व-रजस्-तमोगुणात्मिका कहा जाता है। और चूँकि अपने अस्तित्व के लिए माया का आश्रय ब्रह्म पर है तथा उसे ब्रह्म से ही चैतन्य की प्राप्ति होती है, इसलिए इसे ब्रह्माश्रया भी कहा जाता है।

18.3 सृष्टि (CREATION)

किसी भी उद्देश्यपूर्ण सृष्टि के लिए दो कारण आवश्यक होते हैं: निमित्त कारण (Efficient Cause) और उपादान कारण (Material Cause)। घड़े के निर्माण में, घड़ा बनाने वाला कुम्हार निमित्त कारण है जबकि गूँधी हुई मिट्टी उपादान कारण है। निमित्त कारण के पास आवश्यक ज्ञान (बुद्धि, प्रत्यक्ष दृष्टि) तथा सृजन की शक्ति दोनों होना चाहिए। किसी वस्तु का निर्माता वास्तव में उस वस्तु का ज्ञाता होता है; जैसे घड़ा बनाने वाले कुम्हार को घड़े का ज्ञान होता है।

जगत (विश्व) ईश्वर की माया शक्ति द्वारा निर्मित है। संसार में जो कुछ भी विद्यमान है, वह सब उद्देश्यपूर्ण और सामंजस्ययुक्त है। कुछ भी व्यर्थ नहीं है। प्रत्येक वस्तु को प्रकृति के नियमों का पालन करना पड़ता है। मनुष्य यह सोच सकता है कि उसने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है, किंतु वास्तव में वह केवल प्रकृति को समझकर उसके साथ तालमेल बिठा रहा होता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि ब्रह्माण्ड की सृष्टि में निमित्त और उपादान कारण क्या हैं? ऐसा प्रतीत हो सकता है कि सृष्टिकर्ता ने इस जगत की रचना पदार्थ से की। तब प्रश्न उठता है कि उस पदार्थ को किसने बनाया? स्पष्ट है कि परिभाषा के अनुसार हम उसी सत्ता की खोज कर रहे हैं जिसने सबकुछ रचा। अतः ईश्वर को ही वह पदार्थ भी होना चाहिए जिससे यह जगत बना हुआ प्रतीत होता है। इस प्रकार, सृष्टि की रचना में ईश्वर ही निमित्त कारण भी है और उपादान कारण भी।

यह उसी प्रकार है जैसे मकड़ी अपने लार से जाला बनाती है। वहाँ मकड़ी ही उपादान कारण है और वही निमित्त कारण भी है। एक अन्य उदाहरण स्वप्न है—जिसे मन रचता है। स्वप्न में जीव (जाग्रत अवस्था का मैं) चेतना के दृष्टिकोण से निमित्त कारण है और स्मृतियों के दृष्टिकोण से उपादान कारण है, क्योंकि उन्हीं से स्वप्न में सारी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं।

अतः, जगत की सृष्टि में निमित्त और उपादान दोनों कारण सृष्टिकर्ता (ईश्वर) से ही संबंधित हैं। कारण प्रभाव में निहित रहता है। इसलिए नाम और रूपों से युक्त यह सम्पूर्ण विश्व वस्तुतः ब्रह्म का ही प्रकट रूप है। जड़ पदार्थ से लेकर मनुष्य की सर्वोच्च विकसित अवस्था तक सब कुछ ब्रह्म ही है।

ब्रह्म ही जगत का निमित्त कारण तथा उपादान कारण है।

19. पंचमहाभूतों की उत्पत्ति (EVOLUTION OF THE FIVE ELEMENTS)

तत आकाशः संभूतः। — उस (माया) से आकाश की उत्पत्ति हुई।
आकाशाद् वायुः। — आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई।
वायोस्तेजः। — वायु से अग्नि की उत्पत्ति हुई।
तेजस आपः। — अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई।
अभ्दयः पृथिवी। — जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।

यह सम्पूर्ण जगत पाँच महान् तत्वों (पंचमहाभूतानि) — आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा इनके संयोजनों या मिश्रणों (भौतिकानि) से बना है। जगत में सभी वस्तुएँ, नाम और रूप सम्मिलित हैं — स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर सहित। ये सब तत्व माया द्वारा उत्पन्न किए गए हैं।

इन्द्रियों की कुल संख्या पाँच है — और प्रत्येक इन्द्रिय के साथ उसकी विषय-वस्तु (sense object) भी पाँच प्रकार की है। एक इन्द्रिय और उसके विषय के बीच संबंध होता है — जैसे आँख और रूप-रंग के बीच, या नाक और गंध वाली वस्तुओं के बीच।

ज्ञानेंद्रियाँ (सुख्ष्म इन्द्रियाँ) पाँच सूक्ष्म तत्त्वों (तन्मात्राओं) से बनी होती हैं, जो स्थूल बनने (स्थूलकरण/पंचीकरण) से पहले विद्यमान रहती हैं। पाँच प्रकार के विषय (जैसे रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श) उन्हीं पाँच तत्वों से बने होते हैं, लेकिन उनके स्थूलकरण (पंचीकरण) के बाद।

इन्द्रिय और उसके स्थूल विषय (जैसे — आँख और रूप, या कान और ध्वनि) के बीच के संबंध को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जैसे — टंग्स्टन फिलामेंट वाला एक लैम्प बिजली के संपर्क में आने से प्रकाश देता है। बिजली टंग्स्टन फिलामेंट से अधिक सूक्ष्म है। किंतु फिलामेंट अणुओं से बना है, अणु परमाणुओं से बने हैं, और परमाणु इलेक्ट्रॉनों, प्रोटॉनों आदि से बने हैं। इलेक्ट्रॉन वस्तुतः ऊर्जा ही हैं। इस प्रकार, पदार्थ (जैसे टंग्स्टन फिलामेंट) ऊर्जा का ही स्थूल रूप है।

जब सूक्ष्म (बिजली की) ऊर्जा स्थूल फिलामेंट से जुड़ती है, तब प्रकाश (अनुभव) उत्पन्न होता है। इसी प्रकार, जब सूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय अपने स्थूल विषय से जुड़ती है, तब अनुभव या ज्ञान उत्पन्न होता है।

19.1 सृष्टि-योजना में तन्मात्राएँ (Tanmatras in the Scheme of Creation)

सृष्टि की योजना में तन्मात्राएँ उसी क्रम में प्रकट होती हैं जिस क्रम में उनकी स्थूलता (या कहें सूक्ष्मता का क्रमशः घटते जाना) होती है।

पाँच तन्मात्राएँ इस प्रकार हैं —
आकाश, वायु, अग्नि, आपः (जल) और पृथ्वी।

सृष्टि-क्रम तथा तन्मात्राओं के प्रधान गुण (गुणा) इस प्रकार हैं:

क्रमतत्व (Element)गुण (Guna)
1.आकाश (Akasa)शब्द (Sound)
2.वायु (Air)स्पर्श (Touch)
3.अग्नि (Fire)रूप (Form)
4.आपः (Water)रस (Taste)
5.पृथ्वी (Earth)गंध (Smell)

19.2 पाँच तत्व और उनकी स्थूलता का क्रम

पाँच तत्व उसी क्रम में व्यवस्थित हैं जिस क्रम में वे उत्पन्न हुए। यही क्रम उनकी सूक्ष्मता के घटने (या स्थूलता के बढ़ने) का भी है। स्थूलता या सूक्ष्मता के क्रम को इस प्रकार समझा जाता है:

19.2.1 आकाश (Akasa): आकाश केवल सुना जा सकता है। उसे न तो देखा जा सकता है, न स्पर्श किया जा सकता है, न चखा जा सकता है और न ही सूँघा जा सकता है।

19.2.2 वायु (Air): वायु को सुना भी जा सकता है और स्पर्श भी किया जा सकता है। परन्तु उसे देखा, सूँघा या चखा नहीं जा सकता। हवा के साथ जो गंध आती है वह वायु की अपनी नहीं होती, बल्कि वे पदार्थों की होती है जिन्हें वायु अपने साथ लिए चलती है।

19.2.3 अग्नि (Fire): अग्नि को देखा, सुना और स्पर्श किया जा सकता है। सृष्टि-क्रम में यह पहला ऐसा तत्व है जिसे देखा जा सकता है। इसीलिए इसे दृश्यमान रूप में सृष्टिकर्ता के सबसे निकट माना गया है और भगवान के आवाहन के लिए सभी अनुष्ठानों में अग्नि का प्रयोग किया जाता है।

19.2.4 आपः / जल (Water): जल को देखा जा सकता है, सुना जा सकता है, छुआ जा सकता है और चखा भी जा सकता है। यद्यपि जल को सामान्यतः स्वादहीन कहा जाता है, वास्तव में यह सभी रसों के परिमाण और तुलना का आधार प्रदान करता है।

19.2.5 पृथ्वी (Earth):
पृथ्वी या वे खनिज जिनसे सभी स्थूल रूप वाले पदार्थ बने हैं, उन्हें देखा जा सकता है, चखा जा सकता है, स्पर्श किया जा सकता है, सुना जा सकता है और सूँघा भी जा सकता है। यही एकमात्र तत्व है जिसमें गंध का गुण है।


    इस प्रकार तत्वों को अनुभव करने की क्षमता क्रमशः बढ़ती जाती है और इसीलिए प्रत्येक अगला तत्व अपने पूर्ववर्ती तत्व से अधिक स्थूल माना जाता है।


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