32. तत् त्वम् असि (तू वही है)
32. ननु साहंकारस्य किंचिज्ज्ञस्य जीवस्य निरहंकारस्य सर्वज्ञस्य ईश्वरस्य तत्त्वमसीति महावाक्यात् कथमभेदबुद्धिः स्यादुभयोः विरुद्धधर्माक्रान्तत्वात् इति चेत ।
परंतु जीव अहंकारयुक्त और सीमित ज्ञान वाला है, जबकि ईश्वर अहंकाररहित और सर्वज्ञ है। तब ऐसे में इन दोनों के बीच महावाक्य “तत्त्वमसि” (तू वही है) द्वारा अभेदबुद्धि कैसे संभव है, जबकि दोनों परस्पर विरोधी गुणों से युक्त हैं?
33. न, स्थूलसूक्ष्मशरीराभिमानी त्वंपदवाच्यार्थः।
उपाधिविनिर्मुक्तं समाधिदशासंपन्नं शुद्ध चैतन्यं त्वंपदलक्ष्यार्थः।
नहीं, ऐसा नहीं है। त्वम् शब्द का वाच्यार्थ (शाब्दिक अर्थ) है—वह जो स्थूल और सूक्ष्म शरीर से अभिमान करता है (अर्थात जीव)। किंतु त्वम् शब्द का लक्ष्यार्थ (गूढ़ार्थ) है—सभी उपाधियों से मुक्त, समाधि की दशा को प्राप्त, शुद्ध चैतन्य।
34.1 एवं सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट ईश्वरः तत्पदवाच्यार्थः।
इसी प्रकार “तत्” शब्द का वाच्यार्थ (शाब्दिक अर्थ) है—सर्वज्ञता आदि विशेषणों से युक्त ईश्वर।
34.2 उपाधिशून्यं शुद्धचैतन्यं तत्पदलक्ष्यार्थः।
“तत्” शब्द का लक्ष्यार्थ (गूढ़ार्थ) है—सभी उपाधियों से रहित शुद्ध चैतन्य।
34.3 एवं च जीवेश्वरयो चैतन्यरूपेणाऽभेदे बाधकाभावः।
इस प्रकार चैतन्यरूप के दृष्टिकोण से जीव और ईश्वर में अभेद है और इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
जीव और ईश्वर अथवा साधक और साध्य के बीच की एकता को शास्त्र महावाक्य “तत्त्वमसि” (तू वही है) द्वारा सूचित करता है। यह वाक्य शिष्य के सामने एक समस्या उपस्थित करता है। प्रश्न यह है कि दो परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले तत्वों में एकता कैसे संभव है? जीव एक सीमित सत्ता है। वह अल्पज्ञ (ज्ञान में सीमित), अल्पव्यापी (व्याप्ति में सीमित, अर्थात एक समय में केवल एक स्थान पर), और अल्पशक्तिमान (शक्तियों में सीमित) है। इसके विपरीत ईश्वर सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला), सर्वव्यापी (सभी जगह एक साथ उपस्थित), और सर्वशक्तिमान (सृष्टि, संहार आदि की शक्ति रखने वाला) है।
इन दोनों परस्पर विरोधी सत्ताओं में भेद-बुद्धि मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। तो फिर शास्त्रवाक्य “तत्त्वमसि” की क्या व्याख्या हो? (यह दृष्टिकोण, जो शास्त्रवाक्य पर एक मान्य आपत्ति के रूप में उपस्थित होता है, पूर्वपक्ष कहलाता है।)
वाक्य दो प्रकार के होते हैं—
सामान्य वाक्य (सामान्य वाक्य या “समन्य वाक्य”) : जिनका सीधा अर्थ होता है, जैसे “राम जाता है।”
लक्षणा वाक्य (लक्षणा युक्त वाक्य): जिनका अर्थ प्रत्यक्ष नहीं बल्कि निहित होता है। उदाहरण—“लाल दौड़ रहा है।” यहाँ “लाल” से तात्पर्य घोड़े से है। यदि सुनने वाला यह न समझे कि “लाल” शब्द घोड़े को सूचित करता है तो वाक्य निरर्थक लगेगा।
अतः शास्त्रवाक्यों के अध्ययन में विशेष रूप से लक्षणा वाक्य का अर्थ ग्रहण करने की तैयारी शिष्य में होनी चाहिए।
“तत्त्वमसि” एक लक्षणा वाक्य है जिसमें गहन अर्थ निहित है। यह एक महावाक्य है, अर्थात वह वाक्य जो साधक (जीव) और साध्य (ईश्वर) के बीच अभेद को प्रकट करता है।
अब आचार्य, शिष्य द्वारा उठाए गए संदेह को ध्यान में रखते हुए, इस महावाक्य का अर्थ लक्षणा के माध्यम से समझाते हैं—जहाँ जीव और ईश्वर के बीच के प्रत्यक्ष विरोधाभास को समाधान मिलता है।
“त्वम्” (Thou) शब्द का वाच्यार्थ है—स्थूल और सूक्ष्म शरीर से तादात्म्य करने वाला सीमित अहंकारी जीव। परंतु, जैसा कि पहले कहा गया है, जीव वस्तुतः आत्मा ही है जो अविद्या (व्यक्तिगत अज्ञान) से आच्छादित है। अतः “त्वम्” शब्द का लक्ष्यार्थ है—वह शुद्ध आत्मा जो जीव की वास्तविक पहचान है। यह आत्मा उपाधियों का निरसन करने पर प्रत्यक्ष होती है। यह आत्मा तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) में व्याप्त रहते हुए भी उनसे भिन्न है। इसे “तुरिय” कहा जाता है। वास्तव में यह कोई चौथी अवस्था नहीं है, क्योंकि आत्मा प्रत्येक अवस्था में विद्यमान है। परंतु भ्रम से बचाने के लिए इसे “चौथा” कहा जाता है। इस आत्मा को समाधि की अवस्था में जाना जाता है, और इसे शुद्ध चैतन्य कहा जाता है।
“तत्” (That) शब्द का वाच्यार्थ है—सर्वज्ञ और सर्वव्यापी ईश्वर। परंतु, जैसा कि पहले संकेत किया गया, ईश्वर भी वस्तुतः आत्मा ही है जो मायोपाधि से सीमित प्रतीत होता है। अतः “तत्” शब्द का लक्ष्यार्थ भी वही शुद्ध चैतन्य या परमब्रह्म है।
जीव और ईश्वर के बीच भ्रम केवल सापेक्ष स्तर पर (देश, काल, निमित्त की शर्तों में) है। परंतु यदि उन्हें शुद्ध चैतन्य के निरपेक्ष स्तर से देखा जाए, तो कोई भ्रम या विरोध नहीं रह जाता।
अतः “तत्त्वमसि” महावाक्य में जीव और ईश्वर की एकता में कोई विरोध नहीं है।
35. जीवन्मुक्त (Jivanmukta)
वह साधक जिसने आत्मा और ब्रह्म की एकता के सत्य को जान लिया हो तथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड के भीतर भी उसी एकत्व का अनुभव कर लिया हो, उसे जीवन्मुक्त या ज्ञानी कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति जीव और ईश्वर के बीच की एकरूपता का दर्शन कर लेता है।
35.1 एवं च वेदान्तवाक्यैः सद्गुरूपदेशेन च सर्वेष्वपि भूतेषु येषां ब्रह्मबुद्धिरुत्पन्ना ते जीवन्मुक्ताः इत्यर्थः ।
इस प्रकार वेदान्त के वचनों तथा सद्गुरु के उपदेश द्वारा जिनके भीतर समस्त प्राणियों में ब्रह्म की बुद्धि जागृत हो जाती है, वही जीवन्मुक्त कहलाते हैं — यही इसका तात्पर्य है।
36. ननु जीवन्मुक्तः कः ?
तब प्रश्न उठता है — जीवन्मुक्त वास्तव में कौन है?
36.1. “यथा देहोऽहं पुरुषोऽहं ब्राह्मणोऽहं शूद्रोऽहमस्मीति दृढ़निश्चयः, तथा नाहं ब्राह्मणः, न शूद्रः, न पुरुषः, किन्तु असंगः, सत्-चित्-आनन्द स्वरूपः, प्रकाश रूपः, सर्वान्तर्यामी, चिदाकाश रूपोऽस्मीति दृढ़निश्चयरूपोऽपरोक्षज्ञानवान् जीवन्मुक्तः ।।”
जिस प्रकार मनुष्य के भीतर यह दृढ़ निश्चय होता है कि —
“मैं शरीर हूँ”, “मैं पुरुष हूँ”, “मैं ब्राह्मण हूँ”, “मैं शूद्र हूँ”,
उसी प्रकार जिसके भीतर यह दृढ़ निश्चय स्थापित हो जाता है कि —
“मैं न ब्राह्मण हूँ, न शूद्र हूँ, न पुरुष हूँ; बल्कि मैं असंग हूँ,
सत्-चित्-आनन्द स्वरूप हूँ, प्रकाश रूप हूँ, सबका अन्तर्यामी हूँ, चिदाकाश स्वरूप हूँ” —
वह अपरोक्ष ज्ञान (सीधा अनुभूत ज्ञान) वाला जीवन्मुक्त कहलाता है।
जीवन्मुक्त शब्द का अर्थ है — वह जो जीवित रहते हुए ही मुक्त हो गया है।
मुक्ति केवल जीवन में ही संभव है; जो जीव इस जीवन में मुक्त नहीं हुआ, उसके लिए मृत्यु के बाद कोई मुक्ति नहीं है।
जीवन्मुक्त वही होता है जिसे वेदान्त के उपदेश, ऐसे गुरु से प्राप्त हुए हों, जो स्वयं ज्ञान में स्थित हों और जिनके पास शास्त्रों के सूक्ष्म एवं गहन सत्य को स्पष्ट करने की क्षमता हो।
जीवन्मुक्त समुद्र की उस लहर के समान है जिसने यह जान लिया कि वह उसी जल से बनी है, जिससे पूरा समुद्र बना है, और वास्तव में वही समुद्र है।
जब तक जीवन्मुक्त जीवित रहता है, वह ब्रह्म और ब्रह्माण्ड के साथ अपनी एकता के उस आनन्द का अनुभव करता है।
बाह्य रूप से, जीवन्मुक्त किसी भी अन्य मनुष्य से भिन्न दिखाई नहीं देता। वह कोई विशेष लक्षण, ढंग या आसन विकसित नहीं करता। लेकिन भीतर ही भीतर, उसके पास ब्रह्मबुद्धि — ब्रह्म का साक्षात्कार — विद्यमान रहता है।
उसका स्थूल शरीर तब तक चलता रहता है, जब तक उसमें संचित कर्मों की गति (प्रारब्ध) बनी रहती है; जैसे लहर तब तक चलती रहती है जब तक उसकी गति समाप्त नहीं होती।
श्रुति कहती है:
“यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद् विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्मेति।”
अर्थात् — “जिससे ये सारे भूत और तत्त्व उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न होकर वे जीवित रहते हैं, और जिसमें लीन होकर प्रवेश कर जाते हैं, उसी को जानने की तीव्र इच्छा करो; वही ब्रह्म है।”
जीवन्मुक्त का स्वरूप क्या है?
ब्रह्म के दर्शन (अनुभव) का प्रतिबिंब उसके स्वभाव में किस प्रकार झलकता है?
वह वही है जो इस दृढ़ निश्चय (दृष्टि) में स्थित है कि —
“मैं असंग (अनासक्त) हूँ, मैं सत्–चित्–आनन्द स्वरूप हूँ, मैं प्रकाशस्वरूप हूँ, मैं सबका अन्तर्यामी हूँ, मैं निराकार चैतन्य स्वरूप (Consciousness Absolute) हूँ।”
इन पदों (शब्दों/अवधारणाओं) का अर्थ नीचे विस्तारपूर्वक बताया गया है:
36.2 असंग (Asanga – अनासक्त, अप्रसक्त)
जैसे सामान्य जीव यह दृढ़ निश्चय रखता है कि — “मैं शरीर हूँ”, “मैं ब्राह्मण हूँ”, “मैं पुरुष हूँ” इत्यादि, उसी प्रकार जीवन्मुक्त का दृढ़ निश्चय होता है कि — “मैं शरीर नहीं हूँ, मैं न ब्राह्मण हूँ, न पुरुष हूँ।”
स्वज्ञान (आत्मज्ञान) के द्वारा प्राप्त यह उसकी स्थिर आस्था है कि वह किसी भी वस्तु से असंग है, अर्थात् उसका किसी भी चीज़ से कोई आसक्ति या चिपकाव नहीं है।
वह शरीर, जाति या संप्रदाय के साथ कोई पहचान (identification) नहीं करता।
जैसे आकाश, अपने भीतर स्थित या उसके साथ जुड़ी किसी भी वस्तु से न तो चिपकता है और न ही उससे दूषित होता है, वैसे ही आत्मा भी सबकुछ से परे है और किसी से भी जुड़ा हुआ नहीं है।
आत्मा (स्वरूप) सब कुछ का अतिक्रमण करता है, लेकिन किसी से जुड़ा नहीं होता।
जीवन्मुक्त कोई भी कर्म “अहंकार” (मैं-भाव) से नहीं करता, इसलिए वह किसी भी कर्मफल से नहीं जुड़ता और न ही उसका कोई परिणाम उसे बाँधता है।
36.3 सत्चिदानन्द (अस्तित्व–ज्ञान–आनन्द)
जीवन्मुक्त ने आत्मा और ब्रह्म की एकता का दर्शन (अनुभव) प्राप्त कर लिया है। अतः उसका स्वरूप सत्–चित्–आनन्द है — अर्थात् अस्तित्व, ज्ञान और आनन्द — जो स्वयं आत्मा या चैतन्य का स्वरूप है।
वह प्रकाशस्वरूप (Prakāśa–Svarūpa) भी है, अर्थात् वह जो सबको प्रकाशित करता है — मन के विचारों को, बाह्य जगत को और यहाँ तक कि सूर्य और तारों जैसे प्रकाशमान पिंडों को भी।
(जब आँखें बन्द हो जाती हैं, तब भी मनुष्य अपने आस–पास की वस्तुओं की कल्पना या दृश्य बना सकता है। यह इस बात का प्रमाण है कि चैतन्य ही विचारों को प्रकाशित करता है और इसी से मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार प्रकाशित और क्रियाशील होते हैं।)
36.4 सर्वान्तर्यामी (सभी के भीतर स्थित)
चैतन्य सर्वव्यापी है, अर्थात् वह एक ही समय में सर्वत्र विद्यमान है। सब कुछ उसी के कारण कार्य करता है, जबकि वह स्वयं कोई कार्य नहीं करता।
जीवन्मुक्त भी सर्वव्यापी होता है क्योंकि उसका स्वरूप ही चैतन्य है। वह सबका आत्मा है — प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थित है — जिसकी उपस्थिति के कारण ही सब कुछ कार्य करता है।
36.5 चिदाकाशरूप (निर्गुण चेतना)
जो निराकार, शुद्ध और सरल है, आकाश के समान, वही चिदाकाश है। आकाश को प्रायः सम्पूर्ण सृष्टि का “वस्त्र” या आवरण माना जाता है। परन्तु आकाश भी चैतन्य के भीतर है, और इसलिए चैतन्य अथवा आत्मा ही सब कुछ का आवरण है।
जीवन्मुक्त, आत्मा के स्वरूप का होने के कारण, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला है।
36.6 अपरोक्ष ज्ञान
आत्मा का ज्ञान प्रत्यक्ष (सीधा) ज्ञान है, जिसे अपरोक्ष ज्ञान कहा जाता है। जो जीवन्मुक्त आत्मा का यह ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह अपरोक्ष ज्ञानी कहलाता है।
ज्ञान तीन प्रकार से प्राप्त होता है:
प्रत्यक्ष (Pratyaksha): यह वह ज्ञान है जो इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव से प्राप्त होता है।
परोक्ष (Paroksha): यह वह ज्ञान है जो अनुमान (अनुमान) से प्राप्त होता है, जब ज्ञान का विषय ज्ञाता से दूर होता है। ऐसा ज्ञान सुनकर या वर्णन से मिलता है।
अपरोक्ष (Aparoksha): जो न प्रत्यक्ष है, न परोक्ष, बल्कि तात्कालिक (सीधा) है। ऐसा ज्ञान उस वस्तु का है जो पहले से ही विद्यमान है। इसे प्राप्तस्य प्राप्ति कहा जाता है, अर्थात् पहले से ही उपलब्ध वस्तु का ज्ञान।
आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव अपरोक्ष ज्ञान कहलाता है। ऐसा ज्ञान यह नहीं है कि “कहीं ब्रह्म है”, बल्कि यह है कि “मैं ही ब्रह्म हूँ”। यही अपरोक्ष ज्ञान है। साधना और जिज्ञासा तब तक चलती है जब तक “अस्ति” (है) का बोध “अस्मि” (मैं हूँ) में परिवर्तित न हो जाए।
जीवन्मुक्त का स्वरूप आत्मा या चैतन्य का स्वरूप है, और ऐसे व्यक्ति की पहचान किसी बाह्य लक्षण से नहीं की जा सकती।
36.7 बन्धनमुक्ति (Freedom from Bondage)
ब्रह्मैवाहमस्मीत्यपरोक्षज्ञानेन निखिलकर्मबन्धविनिर्मुक्तः स्यात् । ब्रह्मैव अहम् अस्मीत्य अपरोक्ष ज्ञान द्वारा, अर्थात् “मैं ही ब्रह्म हूँ” के तात्कालिक ज्ञान से, कोई व्यक्ति सभी कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।

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