TATTVA BODHA – 7

24. तामसिक पक्ष का विकास

एतेषां पञ्चतत्त्वानां तामसांशात् पञ्चीकृत-पञ्चतत्त्वानि भवन्ति ।

इन पाँच सूक्ष्म तत्त्वों के तामसांश से पञ्चीकृत (Grossified) पंचतत्त्व उत्पन्न होते हैं।

24.1 पञ्चीकरणं कथम् इति चेत्।

पञ्चीकरण (Grossification) किस प्रकार होता है, उसका वर्णन इस प्रकार है—

24.2 पञ्चीकरणप्रक्रिया (Process of Grossification) पञ्चीकरण की प्रक्रिया

एतेषां पञ्चमहाभूतानां तामसांशस्वरूपम् एकमेकं भूतं द्विधा विभज्य एकमेकमर्धं पृथक् तूष्णी व्यवस्थाप्य अपरमपरमर्धं चतुर्धा विभज्य स्वार्धं मन्येषु अर्धेषु स्वभागचतुष्टयसंयोजनं कार्यम्। तदा पञ्चीकरणं भवति।

  1. प्रत्येक पाँच महाभूतों के तामसांश को दो समान भागों में विभाजित किया जाता है।
  2. प्रत्येक तत्त्व का एक आधा भाग ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता है।
  3. दूसरा आधा भाग पुनः चार समान भागों में विभाजित किया जाता है।
  4. अब, किसी भी तत्त्व के सुरक्षित आधे भाग में अन्य चार तत्त्वों से प्रत्येक का एक-एक अष्टमांश मिलाया जाता है।
  5. इस प्रकार जब यह परस्पर-संयोजन पूरा हो जाता है।

इस पाँच स्तरीय आत्म-विभाजन एवं पारस्परिक संयोजन की प्रक्रिया को पञ्चीकरण (Pancheekarana / Grossification) कहा जाता है।

आकाश (S)  =   ½ S    +   1/8 A         +         1/8 F     +        1/8 W          +     1/8 E

वायु (A)     =   ½ A    +   1/8 S          +         1/8 F       +        1/8 W          +     1/8 E

अग्नि (F)    =   ½ F    +   1/8 S          +         1/8 A       +        1/8 W          +     1/8 E

जल (W)    =   ½ W +   1/8 S          +          1/8 A       +        1/8 F            +     1/8 E

पृथ्वी (E)    =   ½ E   +   1/8 S          +          1/8 A       +        1/8 F            +     1/8 W

25. स्थूलशरीर की उत्पत्ति (Gross Body Formation)

एतेभ्यः पञ्चीकृतपञ्चमहाभूतेभ्यः स्थूलशरीरं भवति ।

इन पाँच पञ्चीकृत महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से ही स्थूल शरीर (Gross Body) की उत्पत्ति होती है।

26. स्थूलता (पञ्चीकरण – Panchikarana)

त्रिगुणात्मिका माया के तामस अंश से निकले पाँच सूक्ष्म तत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) मिलकर स्थूल जगत का निर्माण करते हैं। परंतु स्थूल जगत की रचना से पहले एक विशेष प्रक्रिया घटित होती है, जिसे पञ्चीकरण (Panchikarana) कहते हैं।

इस प्रक्रिया में पाँच सूक्ष्म तत्त्वों के तामस अंश स्थूल तत्त्वों (Gross Elements) में परिवर्तित होते हैं, जिन्हें इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष अनुभव कर सकती हैं। सूक्ष्म तत्त्वों का स्थूल तत्त्वों में रूपांतरण ही पञ्चीकरण या पञ्चगुणात्मक संयोग-विभाजन (Pentamerous Combination Bifurcation) कहलाता है।

पञ्चीकरण की प्रक्रिया

  1. प्रत्येक सूक्ष्म तत्त्व (Tanmatra) के तामस अंश को दो समान भागों में विभाजित किया जाता है।
  2. पहला आधा भाग यथावत् (Intact) रखा जाता है और दूसरा आधा भाग फिर से चार समान भागों (प्रत्येक 1/8) में विभाजित किया जाता है।
  3. एक तत्त्व का पहला आधा भाग शेष चार तत्त्वों के-प्रत्येक 1/8 भागों के साथ मिल जाता है।
  4. इस प्रकार बने स्थूल तत्त्व को उस प्रधान तत्त्व के नाम से जाना जाता है, जिसका उसमें सबसे अधिक अंश होता है। उदाहरण: स्थूल आकाश (Gross Akasa) का निर्माण इस प्रकार होता है:

1/2 आकाश (स्वयं का आधा भाग), 1/8 आकाश (दूसरे आधे का एक भाग),

1/8 वायु, 1/8 अग्नि, 1/8 जल, 1/8 पृथ्वी

इस प्रकार स्थूल आकाश = 1½ आकाश + अन्य चार तत्त्वों के 1/8–1/8 अंश।

इसी तरह अन्य चार स्थूल तत्त्वों (वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) का निर्माण भी होता है।

इन पाँच पञ्चीकृत महाभूतों (Grossified Elements) और उनके विविध संयोगों से ही सम्पूर्ण स्थूल जगत (Gross Objective World) तथा स्थूल शरीर (Gross Body) का निर्माण होता है।

26.1 एवं पिण्डब्रह्माण्डयोरैक्यं संभूतम्।

इस प्रकार पिण्ड (सूक्ष्म/व्यष्टि) और ब्रह्माण्ड (स्थूल/समष्टि) का ऐक्य स्थापित होता है।

व्यक्तिगत स्थूल शरीर को पिण्ड (Pinda) कहते हैं और समस्त स्थूल जगत, जिसमें सभी व्यक्तिगत शरीर और स्थूल भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित हैं, उसे ब्रह्माण्ड (Brahmanda या Anda) कहते हैं। अतः पिण्ड, ब्रह्माण्ड का ही एक अंश है। दोनों ही एक ही पाँच स्थूल महाभूतों से बने हैं, और वे पाँच महाभूत भी माया से उत्पन्न होकर अन्ततः ब्रह्म से ही प्रकट हुए हैं। इसलिए पिण्ड और ब्रह्माण्ड में कोई भेद नहीं है। पिण्ड सूक्ष्म रूप (Microcosm) है और ब्रह्माण्ड विराट रूप (Macrocosm) है। दोनों ही ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं।

अब तक ब्रह्माण्ड की विकास प्रक्रिया बताई गई —

सूक्ष्म वस्तुएँ पञ्चीकरण से पहले उत्पन्न सूक्ष्म तत्त्वों से बनी हैं।

स्थूल वस्तुएँ पञ्चीकरण के बाद बने स्थूल तत्त्वों से बनी हैं।

इस प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि — स्थूल और सूक्ष्म जगत — इन पाँच महाभूतों से बनी है। और ये पाँच महाभूत माया से निकले हैं, जो कि ब्रह्म की शक्ति है।

इस दृष्टि से ब्रह्म ही वह मूल तत्त्व है जिससे सम्पूर्ण जगत की रचना हुई है। अतः चेतन और अचेतन सब कुछ वास्तव में ब्रह्म ही है।

ज्ञान द्वारा उत्पन्न सही दृष्टि से मनुष्य हर जगह ब्रह्म की उपस्थिति का अनुभव कर सकता है और यह भी देख सकता है कि व्यक्तिगत (पिण्ड) और विराट (ब्रह्माण्ड) के बीच मूलभूत एकत्व है।

26.2 ईश्वर और अधिष्ठान देवता

जीव (व्यक्ति) का स्वाभाविक सम्बन्ध ईश्वर (समष्टि) से है।

जब आत्मा सचेतन रूप से सृजन करती है, तब वह ईश्वर कहलाती है; और जब आत्मा अचेतन या सीमित रूप से सृजन करती है, तब वह जीव कहलाती है।

इस प्रकार ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, जगत का स्रष्टा है; जबकि जीव सृजित और सीमित है। जीव सृष्टि के नियमों से बंधा हुआ है और इन्हीं नियमों के माध्यम से वह स्रष्टा से सम्बद्ध है।

ईश्वर को ही भगवान कहा जाता है क्योंकि वे छह गुणों से सम्पन्न हैं:

  1. ऐश्वर्य (Aiswaryam) – सार्वभौम सत्ता
  2. श्री (Sri) – सम्पदा, सम्पन्नता या स्वतंत्रता
  3. ज्ञान (Jnana) – सम्पूर्ण ज्ञान
  4. वैराग्य (Vairagya) – स्वाभाविक अनासक्ति
  5. यशस् (Yasas) – कीर्ति या महिमा
  6. तपस् (Tapas) – तप, आत्मबल या ज्ञानप्रकाश

भगवान जगत का शासन मानो नियमों के द्वारा करते हैं। ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ इन्हीं नियमों की सीमा के भीतर कार्य करती हैं। आँखें तभी देख सकती हैं जब प्रकाश और रूप उपस्थित हों। कान तभी सुन सकते हैं जब ध्वनि आकाश के माध्यम से संचारित हो। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियाँ भी अपने-अपने नियमों के भीतर कार्य करती हैं। अतः इन्द्रियों का सम्बन्ध ईश्वर से नियमों के माध्यम से है, और ये नियम मानो अधिष्ठान देवता हैं। ईश्वर की तुलना शासन-प्रमुख से की जा सकती है, जो अपने नियुक्त अधिकारियों और नियमों के माध्यम से शासन करता है। प्रत्येक नागरिक (जीव) इन नियमों का पालन करने के लिए बाध्य है। नागरिक स्थानीय अधिकारी को प्रसन्न करने के लिए उपहार या भेंट चढ़ाता है, जैसे मनुष्य देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ-अनुष्ठान करता है। स्थानीय अधिकारी शासन-प्रमुख का प्रतिनिधि है और उसके द्वारा स्थापित नियमों के अनुसार कार्य करता है। इस प्रकार अधिष्ठान देवता उस परम शासन-प्रमुख ईश्वर की प्रतिनिधि शक्ति हैं, जिनके माध्यम से जगत का संचालन होता है।

26.3 इन्द्रियों के अधिष्ठान देवता

हर इन्द्रिय का एक अधिष्ठान देवता होता है, क्योंकि इन्द्रियाँ केवल उन्हीं प्राकृतिक नियमों के अंतर्गत कार्य कर सकती हैं जिन्हें ईश्वर ने स्थापित किया है।

अतः अधिष्ठान देवता वास्तव में ईश्वर के ही प्रतिबिम्ब हैं। सभी प्रतिबिम्बों का समष्टि रूप ही ईश्वर है।

जीव के लिए इन्द्रियाँ कार्यकारी अंग (functionaries) हैं। जब जीव किसी इन्द्रिय के माध्यम से किसी वस्तु का अनुभव करता है, तब उस इन्द्रिय के अधिष्ठान देवता के रूप में ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रकट होता है।

(A) ज्ञानेंद्रियाँ और उनके अधिष्ठान देवता

ज्ञानेंद्रियाँ (Sense Organ of Perception)विषय (Object)अधिष्ठान देवता (Presiding Deity)
कान (श्रवण)ध्वनिदिक्पाल (Space/Quarters)
त्वचा (स्पर्श) स्पर्शवायु
नेत्र (दर्शन)रूपसूर्य (अग्नि/प्रकाश)
जिह्वा (रसना)रस (स्वाद)वरुण (जल)
घ्राण (नासिका)गंधअश्विनीकुमार

(B) कर्मेंद्रियाँ और उनके अधिष्ठान देवता

कर्मेंद्रिय (Organ of Action)कार्यअधिष्ठान देवता (Presiding Deity)
वाक् (वाणी)वचन, भाषणअग्नि
पाणि (हाथ)ग्रहण, कर्मइन्द्र
पाद (पैर)गमन, गतिविष्णु
गुदा (गुदा)उत्सर्जनमृत्यु
उपस्थ (जननेंद्रिय)सृजन, प्रजननप्रजापति

26.4 अधिष्ठान देवताओं का व्यापक परिप्रेक्ष्य

अधिष्ठान देवता केवल इन्द्रियों के लिए ही नहीं हैं, बल्कि प्रकृति में व्यक्त होने वाले प्रत्येक विशेष कार्य और अभिव्यक्ति के पीछे भी उनके अधिष्ठाता देवता माने गए हैं।

(A) इन्द्रियों के संदर्भ में

श्रवण (कान) — ध्वनि का ग्रहण केवल तब सम्भव है जब वह आकाश (Space) में यात्रा करती है।

नेत्र (आँखें) — देखने के लिए सूर्य का प्रकाश अनिवार्य है।

इस प्रकार प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय अपने-अपने अधिष्ठाता देवता के नियमों के अंतर्गत ही कार्य करती है।

(B) प्रकृति के अन्य कार्यों में

गंगा — सभी नदियों की अधिष्ठान देवता।

हिमालय — सभी पर्वतों का प्रतिनिधित्व करने वाला अधिष्ठान देवता।

इस प्रकार विशेष प्राकृतिक कार्यों या रूपों के पीछे भी एक अधिष्ठाता देवता माने गए हैं।

(C) अन्तःकरण और अधिष्ठान देवता

अन्तःकरण भी इन सार्वभौमिक नियमों के अधीन है और इसके चार भेदों के अधिष्ठाता देवता इस प्रकार बताए गए हैं (देखें 7.3.2.2):

अन्तःकरण का कार्य (Mode of Antahkarana)          अधिष्ठान देवता (Presiding Deity)

मनस् (संकल्प-विकल्पात्मक)                   चन्द्रमा

बुद्धि (निश्चयात्मिका, सृजनशीलता)             ब्रह्मा

अहंकार (कर्तृत्वाभिमान)                       रुद्र

चित्त (स्मृति, संचयन)                         वासुदेव

27. जीव और ईश्वर

जगत् की विभिन्न वस्तुओं में कोई वास्तविक भेद नहीं है और न ही स्थूल और सूक्ष्म शरीरों में कोई मौलिक अन्तर है। सबका आधार एक ही ब्रह्म है।

किन्तु सीमित जीव, अज्ञान (अविद्या) और देह-मन के साथ तादात्म्य के कारण, इस अन्तर्निहित एकत्व का अनुभव नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप, द्वैत और अलगाव की अनुभूति उत्पन्न होती है।

यह अलगाव ही व्यवहार की दुनिया को जन्म देता है, जहाँ जीव स्वयं को अपूर्ण, आश्रित और बंधनग्रस्त अनुभव करता है। यह सीमितता का भाव केवल इसलिए है कि जीव अपने को अनन्त आत्मा न मानकर सीमित देह और मन के साथ जोड़ लेता है।

वास्तविकता में जीव, ईश्वर से अलग नहीं है, जैसे लहर सागर से अलग नहीं होती। यह भेद केवल आभासी है, जो माया के कारण उत्पन्न होता है। जब सच्चा ज्ञान (ज्ञान) प्राप्त होता है, तब जीव अपनी वास्तविक ईश्वर-स्वरूपता का बोध कर लेता है।

27.2. स्थूलशरीराभिमानी जीवनामकं ब्रह्मप्रतिबिंबं भवति।

स एव जीवः प्रकृत्या स्वस्मात् ईश्वरं भिन्नत्वेन जानाति।

सूक्ष्म शरीर में प्रतिबिम्बित ब्रह्म, जब स्थूल शरीर के साथ तादात्म्य करता है, तो उसे जीव कहा जाता है। यही जीव, अपनी स्वाभाविक अज्ञानवश (प्रकृत्या), ईश्वर को अपने से भिन्न मानता है।

28 अविद्योपाधिः सन् आत्मा जीव इत्युच्यते।

जब आत्मा अविद्या-उपाधि से आवृत होता है, तब उसे जीव कहा जाता है।

29 मायोपाधिः सन् ईश्वर इत्युच्यते।

और जब वही आत्मा माया-उपाधि से युक्त होता है, तब उसे ईश्वर कहा जाता है।

30 एवं उपाधिभेदात् जीवेश्वरभेददृष्टिः यावत्पर्यन्तं तिष्ठति

तावत्पर्यन्तं जन्ममरणादिरूपसंसारो न निवर्तते।

जब तक उपाधियों के कारण यह दृष्टि बनी रहती है कि जीव और ईश्वर अलग-अलग हैं, तब तक जन्म-मरण रूपी संसार से मुक्ति नहीं मिलती।

31. तस्मात्कारणात्र जीवेश्वरयोर्भेदबुद्धिः न स्वीकार्या।

अतः इस कारण से यह बुद्धि स्वीकार्य नहीं है कि जीव ईश्वर से भिन्न है।

शरीर के साथ तादात्म्य करनेवाले आत्मा को जीव कहा जाता है। जीव के पास स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर दोनों होते हैं। सूक्ष्म शरीर में ही चैतन्य का प्रतिबिम्ब होता है। जड़ वस्तुओं के पास सूक्ष्म शरीर नहीं होता, इसलिए उनमें चैतन्य का प्रतिबिम्ब नहीं होता। एक सूक्ष्म शरीर केवल एक स्थूल शरीर के साथ ही तादात्म्य करता है।

चैतन्य सर्वत्र है, जैसे आकाश सर्वत्र है। आकाश उस प्रत्येक वस्तु से परे है, जो उसमें स्थित है। अतः एक वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने पर उसके साथ आकाश को नहीं ले जाना पड़ता, क्योंकि आकाश तो सर्वत्र ही है। इसी प्रकार चैतन्य या आत्मा सर्वत्र है। जहाँ भी सूक्ष्म शरीर है, वह चैतन्य से आलोकित होता है। जब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर को छोड़ देता है, तब स्थूल शरीर मर जाता है और नष्ट हो जाता है। परन्तु सूक्ष्म शरीर जहाँ भी जाता है, वहाँ चैतन्य से प्रकाशित बना रहता है। इसका उदाहरण है – अग्नि से दहकता हुआ लोहे का गोला, जो अग्नि के कारण चमकता है। इसी प्रकार जीव ब्रह्म या चैतन्य का प्रतिबिम्ब है।

जीव वस्तुतः आत्मा (स्वयं) ही है, जो अविद्या-उपाधि से सीमित प्रतीत होता है। दूसरी ओर ईश्वर वही आत्मा (ब्रह्म) है, जो माया-उपाधि से सीमित है। अतः जहाँ जीव व्यक्तिगत अविद्या से युक्त है, वहीं ईश्वर सामूहिक अविद्या (माया) से युक्त है। एक महत्त्वपूर्ण भेद यह है कि जीव माया के अधीन है जबकि ईश्वर माया का नियन्ता है।

जीव और ईश्वर दोनों ही एक ही चैतन्य हैं, केवल उपाधियों के भेद से अलग प्रतीत होते हैं। अतः तत्त्वतः वे दोनों एक ही हैं। परन्तु उपाधि-भेद से उत्पन्न आत्म-अज्ञान के कारण जीव स्वयं को ईश्वर से भिन्न मानता है, जैसे कोई अभिनेता अपना वास्तविक परिचय भूलकर भूमिका को ही अपनी सच्चाई मान ले।

तरंग यह नहीं जानती कि वह उसी पदार्थ (जल) से बनी है, जिससे सागर बना है। इसलिए वह अपने को सागर से भिन्न मानती है। जब तक तरंग अपने को सागर से अलग समझती है, तब तक वह सागर को नहीं देख पाती। ठीक वैसे ही, जैसे तरंग क्षणभंगुर अस्तित्व में जीती है—कुछ क्षण जन्म लेती है, कुछ क्षण रहती है और फिर विलीन हो जाती है—उसी प्रकार जीव भी क्षणभंगुर जीवन जीता है और जन्म-मरण के चक्र (संसार) को भोगता है।

जीव और ईश्वर के बीच भेद-बुद्धि का मूल कारण है—आत्म-अज्ञान। मनुष्य स्वयं को अपूर्ण समझता है और हमेशा कुछ न कुछ पाने की चाह में रहता है। इस अलगाव (भिन्नता) के प्रभाव से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है—इसके कारण को दूर करना, अर्थात् अज्ञान का नाश। और यह अज्ञान केवल आत्म-ज्ञान से ही दूर होता है।

शास्त्र कहते हैं— “ज्ञान ही मुक्त करता है” (ज्ञानदेव तु कैवल्यम्)।

(इससे यह स्पष्ट है कि योग आदि अन्य साधन आत्म-साक्षात्कार के लिये परम उपाय नहीं हैं।)

ज्ञान सदैव समर्थ गुरु द्वारा दिया जाता है, और यदि शिष्य में श्रद्धा और आवश्यक योग्यता हो तो यह ज्ञान श्रवण करते ही घटित हो जाता है। सामान्यतया बुद्धि अपनी तर्कशक्ति से बीच में बाधा डालती है, परन्तु जब बुद्धि को शास्त्रों में निहित युक्तिपूर्ण तर्क से संतुष्ट कर दिया जाता है, तब गुरु का उपदेश तत्काल फलित होता है।

यदि कोई इस जीवन में ही आत्मा को जान ले, तो उसका जीवन सत्य और सार्थक हो जाता है। परन्तु यदि कोई इस जीवन में आत्मा को न जाने, तो उसका नाश अनन्त होता है।


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